पूर्व संदर्भ
पाक्षिक के गत (१ जून) अंक में गायत्री को युगशक्ति के रूप में स्थापित करने के संदर्भ में विभिन्न सूत्र दिए गए थे। उत्साही साधकों ने उसे पसंद भी किया और तद्नुसार अपने प्रयास भी विभिन्न रूपों में प्रारम्भ कर दिए हैं। गायत्री साधना से जीवन परिष्कृत और तेजस्वी बनाने की अगली सीढ़ियों पर चढ़ने- चढ़ाने, आगे बढ़ने- बढ़ाने के औचित्य को स्वीकार किया है। इसी के साथ उन्होंने समाज के विभिन्न वर्गों के व्यक्तियों को गायत्री साधना से जोड़ने और प्रशिक्षण प्रक्रिया को प्रभावी बनाने के विषय को कुछ अधिक विस्तार से समझाने का आग्रह भी किया है। तद्नुसार इस आलेख में इस विषय को कुछ अधिक खोलने का प्रयास किया जा रहा है।
यों तो गायत्री मंत्र के प्रति जन आकर्षण विश्व स्तर पर बढ़ रहा है, लेकिन उसके प्रति आस्था जगाकर, साधना विधि और उसके अनुशासन समझाकर नियमित साधक बनाने के लिए बहुत लगन और अनुभव की जरूरत होती है। बहुत बड़ी संख्या में समझदार लोग यह मानने लगे हैं कि भौतिक संसाधनों- सुविधाओं के बढ़ जाने से बात बनी नहीं है। मनुष्य में मानवीय गुणों का विकास करने के लिए, गुण- कर्म का परिष्कार करने के लिए आध्यात्मिक आधार को मज़बूत बनाना ज़रूरी है। उनके मन- मस्तिष्क में यह आस्था बिठाना ज़रूरी है कि गायत्री साधना से विसंगतियों में उलझे हुए प्राणों को परिष्कृत करके उच्च स्तरीय चेतना से जोड़ा जा सकता है। इसके लिए तो विश्वस्त सलाहकार, अनुभवी परामर्शदाता (मैन्टर) की भूमिका निभाने योग्य सक्षम साधकों की जरूरत होती है। आत्मशक्ति के संवर्धन से, ब्रह्मवर्चस का स्तर बढ़ने से व्यक्तित्वों में लोगों का विश्वास जीतने, आत्मीयतापूर्ण ढंग से अपने अनुभवों के आधार पर उन्हें दिशा- प्रोत्साहन देते रहने, उनका कौशल निखारते रहने की क्षमता बढ़ती है। सम्पर्क में आने वाले प्रत्येक नये- पुराने साधक को उसके स्तर के अनुरूप अगले चरण बढ़ाने के लिए प्रेरित- प्रशिक्षित, प्रोत्साहित करते रहने की क्षमता विकसित होती रहती है। इसी तथ्य को युगऋषि ने 'अपने अंग अवयवों से' नामक निर्देश पत्रक में यह कहकर स्पष्ट किया है कि "अगला कार्यक्रम ऊँचा है, परिजनों के व्यक्तित्वों की ऊँचाई इसी अनुसार बढ़ती रहे, यह जरूरी है।"
संभावनाएँ बहुत हैं
गायत्री मंत्र यों तो सार्वभौम सिद्ध हो चुका है, किन्तु विभिन्न धर्म- सम्प्रदायों, संगठनों, आस्थाओं से जुड़े व्यक्तियों के मन की झिझक दूर करके उन्हें गायत्री साधक बनाने के लिए उनकी आस्था के अनुरूप प्रेरित करना होगा। यह कार्य थोड़े अध्ययन से भली प्रकार किया जा सकता है। जैसे
• सनातन धर्म : सनातन धर्म में तो गायत्री मंत्र को अनादि गुरुमंत्र का दर्जा दिया ही गया है। दकियानूसी सोच के व्यक्तियों द्वारा उसे प्रतिबन्धित रखने के प्रयास निरस्त हो चुके हैं। अपने इष्ट, अपने गुरु और अपने गुरुमंत्र के अनुसार ही साधना करने का आग्रह विभिन्न संगठनों से जुड़े लोगों में होता है। उन्हें निम्न सूत्रों के आधार पर समझाकर सहमत किया जा सकता है।
प्राचीन साधना विधानों के अनुसार किसी भी मंत्र को जाग्रत् करने के लिए गायत्री मंत्र को साथ में करना चाहिए। अपने गुरुमंत्र, इष्टमंत्र या इष्ट नाम का जप करें, लेकिन उसके साथ गायत्री मंत्र भी जपें। गायत्री मंत्र के शिक्षणों के अनुसार जीवन- परिष्कार करते रहने से इष्ट लक्ष्य जल्दी प्राप्त होता है। गायत्री मंत्र में परमात्मा का कोई नाम या रूप नहीं बताया गया है। 'तत्' से अपने इष्ट देव का बोध करते हुए उनके आदर्शों का वरण करने, उनके तेज को अंत:करण में धारण करने और उन्हीं के द्वारा सत्प्रेरणा और शक्ति पाने का भाव रखते हुए गायत्री मंत्र जपा जा सकता है।
• आर्य समाज में तो गायत्री मंत्र सबके लिए आवश्यक माना ही गया है। वे चित्र या मूर्ति की पूजा नहीं करना चाहते तो न करें। उनके यहाँ केवल ॐ युक्त गायत्री मंत्र का चित्र स्थापित कराया जा सकता है। लेकिन युग परिवर्तन के लिए, मनुष्य मात्र के लिए उज्ज्वल भविष्य की कामना से व्यक्तिगत एवं सामूहिक जप- तप के अनुष्ठानों का क्रम तो चलाया ही जा सकता है। जप- उपासना के साथ व्यक्तित्व परिष्कार के सूत्रों को जीवन साधना में संकल्पपूर्वक सम्मिलित कराया जा सकता है। महात्मा आनन्द स्वामी सहित आर्य समाज के अनेक मूर्धन्य विद्वानों, साधकों के उदाहरण से उन्हें प्रेरित किया जा सकता है।
• वैष्णव सम्प्रदाय को मानने वाले व्यक्ति बहुत बड़ी संख्या में हैं। शांतिकुंज के प्रतिनिधियों ने वैष्णव सम्प्रदाय के मान्य धर्मगुरुओं से वार्ता की तो पता लगा कि उनके यहाँ 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' मंत्र के साथ गायत्री मंत्र जपने का नियम है। उन्हें प्रेरणा देकर गायत्री साधक बनाया जा सकता है। 'यज्ञं वै विष्णु:' यज्ञ ही पोषण करने वाले विष्णु भगवान का क्रियात्मक स्वरूप है, यह समझाकर यज्ञीय जीवन क्रम अपनाने के लिए सहमत किया जा सकता है।
• स्वामीनारायण सम्प्रदाय भी प्रकारान्तर से वैष्णव ही है। नारायण, भगवान विष्णु को ही स्वामी मानते हैं। उनकी शिक्षापत्री में भी गायत्री जप का महत्त्व बताया गया है। उन्हें धरती पर स्वर्ग के अवतरण की ईश्वरीय योजना में भागीदार बनने के लिए, गायत्री उपासना करने के लिए प्रेरित किया जा सकता है।
• सत्सार्इं बाबा के अनुयायियों की संख्या भी बहुत बड़ी है। पट्टपूर्ति स्थिति आश्रम में बाबा की वाणी में गायत्री मंत्र का गान प्रसारित किया जाता है। बाबा के द्वारा समय- समय पर दिए गए उपदेशों में से गायत्री के समर्थन में कहे गए सूत्रों को संकलित करके एक पुस्तिका भी प्रकाशित की गई है। उसमें एक स्थान पर लिखा है कि "गायत्री अब इतनी महत्त्वपूर्ण हो गई है कि किसी को भी उसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए।" उनके प्रति श्रद्धा रखने वालों को इस प्रकार के संदर्भ देकर नियमित गायत्री साधना के लिए प्रेरित करना कठिन नहीं है। अभी कुछ वर्ष पहले आॅस्ट्रेलिया के सिडनी शहर में हुए अश्वमेध यज्ञ के संयोजकों में मुख्य भूमिका बाबा के समर्थकों ने ही निभाई थी।
तात्पर्य यह है कि यदि थोड़ा- सा ध्यान दिया जाय, थोड़े विवेक युक्त व्यावहारिक प्रयास किए जायें तो तमाम मत- मतांतरों के अनुयायी नर- नारियों को नैष्ठिक गायत्री साधक बनाया जा सकता है। जरूरत इस बात की है कि उनकी आस्था जगाकर उन्हें पहले सुगम साधनाएँ बतायी जायें। फिर क्रमश: उन्हें आगे बढ़ाते रहा जाय। हर योग्य शिक्षक ऐसा ही करता है। किसी भाषा के आधार पर लिपि में प्रयुक्त होने वाले थोड़े से अक्षर ही होते हैं। गणित के आधार मूल अंक ही होते हैं। उन्हें सीखने से सब सीखा जा सकता है, ऐसा उत्साह जगाकर कमश: विद्यार्थियों को भाषा एवं गणित में कुशल बनाया जाता है। सामाजिक क्षेत्र में 'मैन्टर' (विश्वस्त अनुभवी परामर्शदाता) ऐसी ही भूमिका निभाते हैं। गायत्री साधना का लाभ भी इसी प्रकार के विवेकपूर्ण, लगनयुक्त निरंतर प्रयासों से ही जन- जन तक पहुँचाया जा सकता है।
प्रज्ञा परिजनों के लिए युगऋषि ने 'सत्पराशर्म देने की विधा को स्वभाव का अंग बना लेने की साधना भी बताई है। यदि साधक गण समय की आवश्यकता के अनुरूप युग साधना को विस्तार देने के लिए कमर कस लें तो युगशक्ति के समर्थ- प्रामाणिक माध्यम बनने का श्रेय- सौभाग्य प्राप्त कर सकते हैं।
पाक्षिक के गत (१ जून) अंक में गायत्री को युगशक्ति के रूप में स्थापित करने के संदर्भ में विभिन्न सूत्र दिए गए थे। उत्साही साधकों ने उसे पसंद भी किया और तद्नुसार अपने प्रयास भी विभिन्न रूपों में प्रारम्भ कर दिए हैं। गायत्री साधना से जीवन परिष्कृत और तेजस्वी बनाने की अगली सीढ़ियों पर चढ़ने- चढ़ाने, आगे बढ़ने- बढ़ाने के औचित्य को स्वीकार किया है। इसी के साथ उन्होंने समाज के विभिन्न वर्गों के व्यक्तियों को गायत्री साधना से जोड़ने और प्रशिक्षण प्रक्रिया को प्रभावी बनाने के विषय को कुछ अधिक विस्तार से समझाने का आग्रह भी किया है। तद्नुसार इस आलेख में इस विषय को कुछ अधिक खोलने का प्रयास किया जा रहा है।
यों तो गायत्री मंत्र के प्रति जन आकर्षण विश्व स्तर पर बढ़ रहा है, लेकिन उसके प्रति आस्था जगाकर, साधना विधि और उसके अनुशासन समझाकर नियमित साधक बनाने के लिए बहुत लगन और अनुभव की जरूरत होती है। बहुत बड़ी संख्या में समझदार लोग यह मानने लगे हैं कि भौतिक संसाधनों- सुविधाओं के बढ़ जाने से बात बनी नहीं है। मनुष्य में मानवीय गुणों का विकास करने के लिए, गुण- कर्म का परिष्कार करने के लिए आध्यात्मिक आधार को मज़बूत बनाना ज़रूरी है। उनके मन- मस्तिष्क में यह आस्था बिठाना ज़रूरी है कि गायत्री साधना से विसंगतियों में उलझे हुए प्राणों को परिष्कृत करके उच्च स्तरीय चेतना से जोड़ा जा सकता है। इसके लिए तो विश्वस्त सलाहकार, अनुभवी परामर्शदाता (मैन्टर) की भूमिका निभाने योग्य सक्षम साधकों की जरूरत होती है। आत्मशक्ति के संवर्धन से, ब्रह्मवर्चस का स्तर बढ़ने से व्यक्तित्वों में लोगों का विश्वास जीतने, आत्मीयतापूर्ण ढंग से अपने अनुभवों के आधार पर उन्हें दिशा- प्रोत्साहन देते रहने, उनका कौशल निखारते रहने की क्षमता बढ़ती है। सम्पर्क में आने वाले प्रत्येक नये- पुराने साधक को उसके स्तर के अनुरूप अगले चरण बढ़ाने के लिए प्रेरित- प्रशिक्षित, प्रोत्साहित करते रहने की क्षमता विकसित होती रहती है। इसी तथ्य को युगऋषि ने 'अपने अंग अवयवों से' नामक निर्देश पत्रक में यह कहकर स्पष्ट किया है कि "अगला कार्यक्रम ऊँचा है, परिजनों के व्यक्तित्वों की ऊँचाई इसी अनुसार बढ़ती रहे, यह जरूरी है।"
संभावनाएँ बहुत हैं
गायत्री मंत्र यों तो सार्वभौम सिद्ध हो चुका है, किन्तु विभिन्न धर्म- सम्प्रदायों, संगठनों, आस्थाओं से जुड़े व्यक्तियों के मन की झिझक दूर करके उन्हें गायत्री साधक बनाने के लिए उनकी आस्था के अनुरूप प्रेरित करना होगा। यह कार्य थोड़े अध्ययन से भली प्रकार किया जा सकता है। जैसे
• सनातन धर्म : सनातन धर्म में तो गायत्री मंत्र को अनादि गुरुमंत्र का दर्जा दिया ही गया है। दकियानूसी सोच के व्यक्तियों द्वारा उसे प्रतिबन्धित रखने के प्रयास निरस्त हो चुके हैं। अपने इष्ट, अपने गुरु और अपने गुरुमंत्र के अनुसार ही साधना करने का आग्रह विभिन्न संगठनों से जुड़े लोगों में होता है। उन्हें निम्न सूत्रों के आधार पर समझाकर सहमत किया जा सकता है।
प्राचीन साधना विधानों के अनुसार किसी भी मंत्र को जाग्रत् करने के लिए गायत्री मंत्र को साथ में करना चाहिए। अपने गुरुमंत्र, इष्टमंत्र या इष्ट नाम का जप करें, लेकिन उसके साथ गायत्री मंत्र भी जपें। गायत्री मंत्र के शिक्षणों के अनुसार जीवन- परिष्कार करते रहने से इष्ट लक्ष्य जल्दी प्राप्त होता है। गायत्री मंत्र में परमात्मा का कोई नाम या रूप नहीं बताया गया है। 'तत्' से अपने इष्ट देव का बोध करते हुए उनके आदर्शों का वरण करने, उनके तेज को अंत:करण में धारण करने और उन्हीं के द्वारा सत्प्रेरणा और शक्ति पाने का भाव रखते हुए गायत्री मंत्र जपा जा सकता है।
• आर्य समाज में तो गायत्री मंत्र सबके लिए आवश्यक माना ही गया है। वे चित्र या मूर्ति की पूजा नहीं करना चाहते तो न करें। उनके यहाँ केवल ॐ युक्त गायत्री मंत्र का चित्र स्थापित कराया जा सकता है। लेकिन युग परिवर्तन के लिए, मनुष्य मात्र के लिए उज्ज्वल भविष्य की कामना से व्यक्तिगत एवं सामूहिक जप- तप के अनुष्ठानों का क्रम तो चलाया ही जा सकता है। जप- उपासना के साथ व्यक्तित्व परिष्कार के सूत्रों को जीवन साधना में संकल्पपूर्वक सम्मिलित कराया जा सकता है। महात्मा आनन्द स्वामी सहित आर्य समाज के अनेक मूर्धन्य विद्वानों, साधकों के उदाहरण से उन्हें प्रेरित किया जा सकता है।
• वैष्णव सम्प्रदाय को मानने वाले व्यक्ति बहुत बड़ी संख्या में हैं। शांतिकुंज के प्रतिनिधियों ने वैष्णव सम्प्रदाय के मान्य धर्मगुरुओं से वार्ता की तो पता लगा कि उनके यहाँ 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' मंत्र के साथ गायत्री मंत्र जपने का नियम है। उन्हें प्रेरणा देकर गायत्री साधक बनाया जा सकता है। 'यज्ञं वै विष्णु:' यज्ञ ही पोषण करने वाले विष्णु भगवान का क्रियात्मक स्वरूप है, यह समझाकर यज्ञीय जीवन क्रम अपनाने के लिए सहमत किया जा सकता है।
• स्वामीनारायण सम्प्रदाय भी प्रकारान्तर से वैष्णव ही है। नारायण, भगवान विष्णु को ही स्वामी मानते हैं। उनकी शिक्षापत्री में भी गायत्री जप का महत्त्व बताया गया है। उन्हें धरती पर स्वर्ग के अवतरण की ईश्वरीय योजना में भागीदार बनने के लिए, गायत्री उपासना करने के लिए प्रेरित किया जा सकता है।
• सत्सार्इं बाबा के अनुयायियों की संख्या भी बहुत बड़ी है। पट्टपूर्ति स्थिति आश्रम में बाबा की वाणी में गायत्री मंत्र का गान प्रसारित किया जाता है। बाबा के द्वारा समय- समय पर दिए गए उपदेशों में से गायत्री के समर्थन में कहे गए सूत्रों को संकलित करके एक पुस्तिका भी प्रकाशित की गई है। उसमें एक स्थान पर लिखा है कि "गायत्री अब इतनी महत्त्वपूर्ण हो गई है कि किसी को भी उसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए।" उनके प्रति श्रद्धा रखने वालों को इस प्रकार के संदर्भ देकर नियमित गायत्री साधना के लिए प्रेरित करना कठिन नहीं है। अभी कुछ वर्ष पहले आॅस्ट्रेलिया के सिडनी शहर में हुए अश्वमेध यज्ञ के संयोजकों में मुख्य भूमिका बाबा के समर्थकों ने ही निभाई थी।
तात्पर्य यह है कि यदि थोड़ा- सा ध्यान दिया जाय, थोड़े विवेक युक्त व्यावहारिक प्रयास किए जायें तो तमाम मत- मतांतरों के अनुयायी नर- नारियों को नैष्ठिक गायत्री साधक बनाया जा सकता है। जरूरत इस बात की है कि उनकी आस्था जगाकर उन्हें पहले सुगम साधनाएँ बतायी जायें। फिर क्रमश: उन्हें आगे बढ़ाते रहा जाय। हर योग्य शिक्षक ऐसा ही करता है। किसी भाषा के आधार पर लिपि में प्रयुक्त होने वाले थोड़े से अक्षर ही होते हैं। गणित के आधार मूल अंक ही होते हैं। उन्हें सीखने से सब सीखा जा सकता है, ऐसा उत्साह जगाकर कमश: विद्यार्थियों को भाषा एवं गणित में कुशल बनाया जाता है। सामाजिक क्षेत्र में 'मैन्टर' (विश्वस्त अनुभवी परामर्शदाता) ऐसी ही भूमिका निभाते हैं। गायत्री साधना का लाभ भी इसी प्रकार के विवेकपूर्ण, लगनयुक्त निरंतर प्रयासों से ही जन- जन तक पहुँचाया जा सकता है।
प्रज्ञा परिजनों के लिए युगऋषि ने 'सत्पराशर्म देने की विधा को स्वभाव का अंग बना लेने की साधना भी बताई है। यदि साधक गण समय की आवश्यकता के अनुरूप युग साधना को विस्तार देने के लिए कमर कस लें तो युगशक्ति के समर्थ- प्रामाणिक माध्यम बनने का श्रेय- सौभाग्य प्राप्त कर सकते हैं।