समय के अनन्त प्रवाह की, मनुष्य द्वारा निर्धारित एक इकाई भर है 'वर्ष'
इस तथ्य को समझें, पुराने वर्ष का मानें आभार, नये को करें अंगीकार
अखण्ड काल प्रवाह
परमात्मा की तरह समय भी अनन्त, अखण्ड, अनादि, अच्छेद्य, अभेद्य कहा जाता है। जब कुछ नहीं था, सृष्टि नहीं बनी थी, तब भी समय था और जब कुछ नहीं रहेगा, सृष्टि का विलय हो जायेगा, तब भी समय रहेगा। यह बात और है कि काल के उस अनन्त प्रवाह के उन खण्डों (जब सृष्टि न थी या नहीं रहेगी) की व्याख्या करना मनुष्य की बुद्धि के परे की बात है। भले ही हम उसकी गणना या व्याख्या न कर सकें, किन्तु उसके अस्तित्व को तो मानना ही पड़ता है।
ऋग्वेद के अध्याय १९० में तत्त्वज्ञ ऋषियों ने काल की विराटता और सामर्थ्य को शब्दों में समझाने का प्रयास किया है। सामान्य बुद्धि से सृष्टि के उदय से लेकर विलय तक का समय बहुत लम्बा, अरबों- खरबों वर्ष का होता है। किन्तु ऋषि कहते हैं काल की विराटता के सापेक्ष में यह क्रम पलक झपकने जितनी अवधि में पूरा हो जाता है। सृष्टि के प्राणियों को तो काल का बोध उत्पन्न पिण्डों और उनकी गति के आधार पर ही होता है।
वेद के उक्त कथन को आज के पदार्थ विज्ञान के संदर्भ से भी स्पष्ट समझा जा सकता है। हमारी धरती अपनी धुरी पर जितने समय में ३६० अंश घूम लेती है, उस समय की अवधि को हम अहोरात्र (दिन- रात) कहते हैं। इसी प्रकार भूमि सूर्य के चारों ओर जितने समय में एक परिक्रमा पूरी कर लेती है, उसे हमने एक 'वर्ष' कहा है। यदि पृथ्वी की अपनी धुरी पर घूमने की गति बदल जाये तो हमारे दिन का समयमान बदल जायगा। इसी प्रकार यदि सूर्य के चारों ओर घूमने की गति बदल जाने से एक वर्ष में दिनों की संख्या बदल जायेगी। लेकिन काल का, समय का वह अखण्ड प्रवाह तो उसी रूप में बना ही रहेगा।
यह तथ्य उदाहरण से समझें। मान लें कि भूमि की अपनी धुरी पर घूमने की गति दो गुनी हो जाये और सूर्य परिक्रमा की गति यही बनी रहे तो हमारा वर्ष ३६५.२५ दिन की जगह ७३०.५ दिन का हो जायेगा। इसके विपरीत यदि धुरी पर भ्रमण गति यही रहे और सूर्य की परिक्रमा की गति आधी हो जाये तो भी हमारा वर्ष ७३०.५ दिन का हो जायेगा। दोनों ही स्थितियों में काल के विराट प्रवाह का रूप तो वही रहेगा। वास्तव में पिण्डों की गति के सापेक्ष, निरपेक्ष मूल स्वरूप (एब्सोल्यूट टाइम) की अवधारणा बड़ी दुर्बोध है।
चेतना के सापेक्ष :- ऊपर की पंक्तियों में पिण्डों की गति के सापेक्ष समय के बोध की समीक्षा की गयी। यदि चेतन के सापेक्ष इसकी समीक्षा की जाये तब भी मनुष्य बुद्धि इसी तरह बौनी सिद्ध होने लगती है।
उक्त तथ्य को भी कुछ उदाहरणों के माध्यम से समझने का प्रयास करें।
प्राणी का जीवन, उसका गर्भकाल, युवा होने- प्रजनन में समर्थ होने की समय की अवधि पिण्ड की गति के सापेक्ष नहीं, चेतन के संकल्प के सापेक्ष होती है। मनुष्य के लिए गर्भकाल औसतन ९ माह है और औसत आयु ८० से १०० वर्ष मान्य है। गौ वंश के लिए भी गर्भकाल उतना ही, लगभग ९ माह है, किन्तु आयु २०- २५ वर्ष ही है। गाय का शिशु जन्म के एकाध घंटे में ही अपने पैरों खड़ा हो जाता है, किन्तु मनुष्य के शिशु को १० से १२ माह का समय लग जाता है। मच्छर- मक्खी का जीवन कुछ दिनों का ही होता है। उन्हें जवान, प्रजनन में समर्थ होने में एक- दो दिन का समय ही पर्याप्त होता है। जीवन की कौन- सी प्रक्रिया कितने समय में पूरी होगी, यह जीव के अन्दर स्थित चेतन सत्ता के संकल्प पर निर्भर है।
उदाहरण से समझें। एक ही जीव- चेतना जब अलग- अलग योनियों में जाती है तो अपने गर्भकाल, सारी जवानी, सारे जीवन की अनुभूति समय की भिन्न- भिन्न अवधियों में करती है। उसकी समय की अनुभूति कुछ घंटों, कुछ दिन से लेकर कई वर्षों तक की हो सकती है, किन्तु समय के अखण्ड प्रवाह में उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। समय की अवधि का बोध पिण्ड गति के सापेक्ष या चेतन संकल्प के सापेक्ष तो समझ में आता है, किन्तु उसके विराट स्वरूप को तो परमात्मा की तरह ही नेति- नेति कहकर 'नमन' किया जा सकता है।
वर्ष- संवत्सर की गणना?
जो भी हो, हमारी पृथ्वी पर समय की गणना दिवस और वर्षों की इकाई के रूप में मान्य है। इसे सूर्य और धरती की सापेक्ष गतियों ने निर्धारित कर दिया है। यदि हम धरती के गुरुत्वाकर्षण के बाहर चले जायें तो हमें वहाँ न दिन- रात का बोध होगा और न वर्ष का। अगणित सूर्यों के चारों ओर अगणित पिण्ड भिन्न- भिन्न गतियों से घूम रहे हैं। हम उनसे परे हैं तो दिवस या वर्षों का बोध कहाँ हो पायेगा? लेकिन हम भूमि के प्रभाव क्षेत्र में है इसलिए दिवस और वर्ष की इसी मान्यता को स्वीकार करते हैं।
अब दूसरा प्रश्न उभरता है कि हम वर्ष की गणना कब से प्रारंभ करें। एक वर्ष का चक्र तो किसी क्षण से प्रारंभ माना जा सकता है। वेद ने एक दिन को 'अहोरा' चक्र' और वर्ष को 'संवत्सर चक्र' कहा है। जैसे गोलाकार वस्तु की नाप किसी भी बिन्दु से प्रारंभ की जा सकती है, इसी तरह अहोरात्र या संवत्सर की गणना भी किसी भी क्षण से की जा सकती है।
'संवत्सर' की शब्द व्युत्पत्ति समझें तो उसे 'संवसन्ति ऋतवो अत्र' (अर्थात् संवत्सर में सभी ऋतुएँ रहती हैं।) माना जाता है। अब यह ऋतुचक्र छ: ऋतुओं में से कहीं से भी प्रारंभ किया जा सकता है। वर्ष का, संवत्सर का प्रारंभ भी मनुष्य की मान्यताओं पर ही निर्भर करता है। जहाँ से प्रारंभ मान लिया जाय, उसी बिन्दु पर पुराने वर्ष का समापन और नये वर्ष का शुभारंभ माना जा सकता है। इसे भी विभिन्न क्षेत्रों और वर्गों के व्यक्तियों ने अपनी- अपनी आस्था के अनुसार निर्धारित कर लिया है। कहीं विक्रम, कही शक, कहीं ईसवी, कही हिजरी आदि वर्षों के प्रारंभ या समापन की तिथियाँ सम्बन्धित व्यक्तियों की आस्था के अनुसार मान ली गयी हैं। उन्हीं के अनुसार उल्लासभरी प्रवृत्तियों का क्रम चल पड़ता है।
यही नहीं, व्यवहार में देखें तो व्यक्तिगत मान्यताओं के अनुसार भी नये वर्ष का उत्साह उभरता है। जो जन्मदिन को महत्त्व देते हैं, वे जन्मदिन से जीवन के नये वर्ष की शुरुआत मानते हैं। विवाह दिन को महत्त्व देने वाले लोग भी उस दिन दाम्पत्य का नया वर्ष शुरू मान लेते हैं। गुरुदीक्षा को महत्त्व देने वाले व्यक्ति अपने दीक्षा दिवस को ही केन्द्र बिन्दु मानकर उल्लासभरी नयी गतिविधियाँ प्रारंभ करते हैं। उक्त तथ्यों के आधार पर किसी भी आस्थावान व्यक्ति के जीवन में नये वर्ष का नया उल्लास अनुभव करने के कई अवसर आते हैं। भारतीय संस्कृति के तत्त्व दर्शन के अनुसार तो रोज जागरण के साथ नया जन्म मानने वाले साधक प्रतिदिन उस नवीन उल्लास का अनुभव कर सकते और लाभ उठा सकते हैं।
क्या दे गया, क्या ले आया?
उक्त समीक्षात्मक चिन्तन के आधार पर निष्कर्ष यही निकलता है कि वर्ष या संवत्सर की अवधि ग्रह- नक्षत्रों की सापेक्ष गति के अनुसार निश्चित हो जाती है, लेकिन उस चक्र को कहाँ से शुरू करें, यह बात वर्ग विशेष या व्यक्ति विशेष की आस्था पर निर्भर करती है। लोक प्रचलन की दृष्टि से ईसवी सन् के साथ वर्ष परिवर्तन की लहर सबसे अधिक प्रभावी दिखती है। उसके अनुसार सन् २०१७ जा रहा है और वर्ष २०१८ आ रहा है। जो भी हो, आस्था या परम्परा के अनुसार जाने वाला वर्ष क्या देकर जाता है और नया वर्ष क्या लेकर आता है, इस पर चिन्तन करें तो निर्विवाद रूप से निम्नानुसार तथ्य सामने आते हैं।
• जाने वाला वर्ष कुछ बेशकीमती अनुभव देकर जाता है। इसके लिए उसके प्रति आभार व्यक्त किया जाना चाहिए।
• आने वाला वर्ष नये बहुमूल्य अवसर उपहार में लेकर आता है, उन उपहारों को स्वीकार- अंगीकार करना चाहिए। नये वर्ष की मान्यता के आधार पर जो आन्तरिक उल्लास उभरता है, उसे पुराने के प्रति आभार व्यक्त करने में और नये के उपहारों को स्वीकार करने में लगाना ही जीवन की प्रगति के लिए उपयोगी होता है। दोनों का अपना- अपना असाधारण महत्त्व है। सूझबूझ या विवेक की कमी के कारण लोग उनका लाभ नहीं उठा पाते।
भरपूर लाभ उठायें
मनुष्य का सहज स्वभाव है कि नयेपन के लिए उसके मन में उत्साह उभरता है। अपनी आस्था के अनुसार नये वर्ष को जीवन के लिए एक नयी सौगात मानकर कुछ नया करने का उत्साह, उल्लास उभरता है। सामान्य रूप से नये वस्त्र पहनकर खुशी प्रकट करने के लिए समारोह मानकर, अपनों को भेंट- उपहार देकर उस उत्साह- उल्लास को सार्थक मान लेते हैं। इसे किसी हद तक उचित मान लें, तो भी समय की एक मूल्यवान इकाई के अनुदानों को पाने की दृष्टि से पर्याप्त तो कतई नहीं है। कई बार तो यह हर्षाभिव्यक्ति विकृत होकर उल्टी हानिकारक हो जाती है। जैसे प्रसन्नता को नशे के साथ, अश्लील प्रसंगों के साथ जोड़ने की परम्परा प्रचलन में भले ही आ गयी हो किन्तु, वह ऐसे पावन प्रसंग के प्रतिकूल ही मानी जायेगी।
आस्था के अनुसार नया वर्ष अपने किसी श्रद्धास्पद व्यक्ति या प्रसंग के साथ सम्बद्ध होता है। उस श्रद्धास्पद के सुझाये आदर्शों को अपनाने में प्रसन्नता व्यक्त की जाये तो उसे संस्कृति का अंग कहा जा सकता है, किन्तु यदि वह उसके विपरीत प्रसंगों में व्यक्त की जाती है तो निश्चित रूप से उसे अविवेकपूर्ण विकृति ही कहा जायेगा। परमात्मसत्ता के समकक्ष समय की एक ईकाई के नाते उभरे उल्लास को विकृतियों से बचाकर संस्कृति से जोड़ने के विवेक और साहसपूर्ण प्रयास किए और कराये जाने चाहिए। जाने वाले वर्ष के अनुभव- आशीर्वाद और आने वाले के उपहार- अवसरों का पूरा लाभ उठाने की तैयारी की जानी चाहिए।
अनुभव :- अच्छे या बुरे, सफलता या असफलता दोनों प्रकार के अनुभव बेशकीमती होते हैं। उनका उपयोग भविष्य को संवारने, शानदार बनाने में किया जा सकता है। तमाम महान् व्यक्तियों ने ऐसा ही किया है। सफलता के अनुभव उत्साह बढ़ाते हैं और असफलता के अनुभव सही दिशा का बोध कराके जाते हैं। बीते वर्ष द्वारा दिए गये अनुभवों को उसका आशीर्वाद मानकर प्रसन्नतापूर्वक नये वर्ष में प्रवेश करने का मन बनाना चाहिए।
विगत वर्ष से अनुभव लेने की जगह यदि शिकवा- शिकायतें की जायें तो कुछ मिलने वाला नहीं। ऐसा न होता तो अच्छा होता, ऐसा होता तो कुछ अधिक लाभ होता। यह चिन्तन हाथ में आये समय को व्यर्थ गँवाने और मानसिक तनाव या व्यथा देने के अतिरिक्त और कुछ नहीं दे पाता। बीते वर्ष द्वारा दिए गये अनुभवों के लिए उसका आभार मानने वाले व्यक्ति नये वर्ष द्वारा लाये जाने वाले अवसरों- उपहारों का भली प्रकार लाभ उठा पाते हैं।
अवसर- समय के प्रवाह के साथ आते हैं और निकल जाते हैं। वे किसी की प्रतीक्षा नहीं करते। जो निकल गया वह बेकार गया और साथ में टैक्स के रूप में हमारा उतना समय लेता गया। जो आ रहा है, उसकी कीमत हमारे द्वारा किए गये उपयोग के आधार बनती है। उपयोग अनुभवों और तत्परता, कर्मठता के माध्यम से ही किया जाता है। विगत के आशीर्वाद रूप अनुभवों को संजोइये और अपनी पूरी तत्परता से आगत के द्वारा भेंट में दिए जाने वाले अवसरों को अंगीकार करने की तैयारी कीजिए।
हिम्मत मत हारिए :- जी हाँ, अवसर आया और हम चूक गये, इससे निराश मत होइये। इससे अपनी तत्परता घट जाती है और आने वाले नये अवसर का लाभ उठाने की संभावना भी कम हो जाती है।
यों समझिये :- आप क्रिकेट खेल रहे हैं। बल्ला आपके हाथ में है। हर अवसर एक गेंद के रूप में आता है। किसी को आप बल्ले पर नहीं ले पाते। किसी शॉट को विरोधी टीम के खिलाड़ी रोक लेते हैं। कोई बात नहीं। ध्यान रखिये कि इस खेल में कितनी ही बॉलें बल्ले पर न आयें या स्ट्रोक रोक लिए जायें, आप तब तक आउट नहीं होते जब तक आप स्वयं बल्ला रख नहीं देते। निराश होना स्वयं ही बल्ला रख देना है। खेल भावना के साथ जमे रहिए। अनुभवों का इस्तेमाल कीजिए, बल्ले पर पकड़ मजबूत रखिये, हर बाल (अवसर) को पूरी तत्परता से लीजिए। रन बनेगा, चौके- छक्के भी लगेंगे।
जी हाँ तो पुराना वर्ष बहुमूल्य अनुभव देकर जा रहा है और नया वर्ष बहुमूल्य अवसर लेकर आ रहा है। हमें नये वर्ष में, नयी पारी अधिक तत्परता, प्रसन्नता के साथ खेलनी है। करिए तैयारी। पुराने को अलविदा कहकर, नये के स्वागत में समारोह मनाकर ही न रह जाइये। पुराने के अनुभव आशीर्वाद के साथ नये के अवसर- उपहारों को अंगीकार करने की तैयारी कीजिए।
नया वर्ष मंगलमय हो- विकासमय हो।
इस तथ्य को समझें, पुराने वर्ष का मानें आभार, नये को करें अंगीकार
अखण्ड काल प्रवाह
परमात्मा की तरह समय भी अनन्त, अखण्ड, अनादि, अच्छेद्य, अभेद्य कहा जाता है। जब कुछ नहीं था, सृष्टि नहीं बनी थी, तब भी समय था और जब कुछ नहीं रहेगा, सृष्टि का विलय हो जायेगा, तब भी समय रहेगा। यह बात और है कि काल के उस अनन्त प्रवाह के उन खण्डों (जब सृष्टि न थी या नहीं रहेगी) की व्याख्या करना मनुष्य की बुद्धि के परे की बात है। भले ही हम उसकी गणना या व्याख्या न कर सकें, किन्तु उसके अस्तित्व को तो मानना ही पड़ता है।
ऋग्वेद के अध्याय १९० में तत्त्वज्ञ ऋषियों ने काल की विराटता और सामर्थ्य को शब्दों में समझाने का प्रयास किया है। सामान्य बुद्धि से सृष्टि के उदय से लेकर विलय तक का समय बहुत लम्बा, अरबों- खरबों वर्ष का होता है। किन्तु ऋषि कहते हैं काल की विराटता के सापेक्ष में यह क्रम पलक झपकने जितनी अवधि में पूरा हो जाता है। सृष्टि के प्राणियों को तो काल का बोध उत्पन्न पिण्डों और उनकी गति के आधार पर ही होता है।
वेद के उक्त कथन को आज के पदार्थ विज्ञान के संदर्भ से भी स्पष्ट समझा जा सकता है। हमारी धरती अपनी धुरी पर जितने समय में ३६० अंश घूम लेती है, उस समय की अवधि को हम अहोरात्र (दिन- रात) कहते हैं। इसी प्रकार भूमि सूर्य के चारों ओर जितने समय में एक परिक्रमा पूरी कर लेती है, उसे हमने एक 'वर्ष' कहा है। यदि पृथ्वी की अपनी धुरी पर घूमने की गति बदल जाये तो हमारे दिन का समयमान बदल जायगा। इसी प्रकार यदि सूर्य के चारों ओर घूमने की गति बदल जाने से एक वर्ष में दिनों की संख्या बदल जायेगी। लेकिन काल का, समय का वह अखण्ड प्रवाह तो उसी रूप में बना ही रहेगा।
यह तथ्य उदाहरण से समझें। मान लें कि भूमि की अपनी धुरी पर घूमने की गति दो गुनी हो जाये और सूर्य परिक्रमा की गति यही बनी रहे तो हमारा वर्ष ३६५.२५ दिन की जगह ७३०.५ दिन का हो जायेगा। इसके विपरीत यदि धुरी पर भ्रमण गति यही रहे और सूर्य की परिक्रमा की गति आधी हो जाये तो भी हमारा वर्ष ७३०.५ दिन का हो जायेगा। दोनों ही स्थितियों में काल के विराट प्रवाह का रूप तो वही रहेगा। वास्तव में पिण्डों की गति के सापेक्ष, निरपेक्ष मूल स्वरूप (एब्सोल्यूट टाइम) की अवधारणा बड़ी दुर्बोध है।
चेतना के सापेक्ष :- ऊपर की पंक्तियों में पिण्डों की गति के सापेक्ष समय के बोध की समीक्षा की गयी। यदि चेतन के सापेक्ष इसकी समीक्षा की जाये तब भी मनुष्य बुद्धि इसी तरह बौनी सिद्ध होने लगती है।
उक्त तथ्य को भी कुछ उदाहरणों के माध्यम से समझने का प्रयास करें।
प्राणी का जीवन, उसका गर्भकाल, युवा होने- प्रजनन में समर्थ होने की समय की अवधि पिण्ड की गति के सापेक्ष नहीं, चेतन के संकल्प के सापेक्ष होती है। मनुष्य के लिए गर्भकाल औसतन ९ माह है और औसत आयु ८० से १०० वर्ष मान्य है। गौ वंश के लिए भी गर्भकाल उतना ही, लगभग ९ माह है, किन्तु आयु २०- २५ वर्ष ही है। गाय का शिशु जन्म के एकाध घंटे में ही अपने पैरों खड़ा हो जाता है, किन्तु मनुष्य के शिशु को १० से १२ माह का समय लग जाता है। मच्छर- मक्खी का जीवन कुछ दिनों का ही होता है। उन्हें जवान, प्रजनन में समर्थ होने में एक- दो दिन का समय ही पर्याप्त होता है। जीवन की कौन- सी प्रक्रिया कितने समय में पूरी होगी, यह जीव के अन्दर स्थित चेतन सत्ता के संकल्प पर निर्भर है।
उदाहरण से समझें। एक ही जीव- चेतना जब अलग- अलग योनियों में जाती है तो अपने गर्भकाल, सारी जवानी, सारे जीवन की अनुभूति समय की भिन्न- भिन्न अवधियों में करती है। उसकी समय की अनुभूति कुछ घंटों, कुछ दिन से लेकर कई वर्षों तक की हो सकती है, किन्तु समय के अखण्ड प्रवाह में उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। समय की अवधि का बोध पिण्ड गति के सापेक्ष या चेतन संकल्प के सापेक्ष तो समझ में आता है, किन्तु उसके विराट स्वरूप को तो परमात्मा की तरह ही नेति- नेति कहकर 'नमन' किया जा सकता है।
वर्ष- संवत्सर की गणना?
जो भी हो, हमारी पृथ्वी पर समय की गणना दिवस और वर्षों की इकाई के रूप में मान्य है। इसे सूर्य और धरती की सापेक्ष गतियों ने निर्धारित कर दिया है। यदि हम धरती के गुरुत्वाकर्षण के बाहर चले जायें तो हमें वहाँ न दिन- रात का बोध होगा और न वर्ष का। अगणित सूर्यों के चारों ओर अगणित पिण्ड भिन्न- भिन्न गतियों से घूम रहे हैं। हम उनसे परे हैं तो दिवस या वर्षों का बोध कहाँ हो पायेगा? लेकिन हम भूमि के प्रभाव क्षेत्र में है इसलिए दिवस और वर्ष की इसी मान्यता को स्वीकार करते हैं।
अब दूसरा प्रश्न उभरता है कि हम वर्ष की गणना कब से प्रारंभ करें। एक वर्ष का चक्र तो किसी क्षण से प्रारंभ माना जा सकता है। वेद ने एक दिन को 'अहोरा' चक्र' और वर्ष को 'संवत्सर चक्र' कहा है। जैसे गोलाकार वस्तु की नाप किसी भी बिन्दु से प्रारंभ की जा सकती है, इसी तरह अहोरात्र या संवत्सर की गणना भी किसी भी क्षण से की जा सकती है।
'संवत्सर' की शब्द व्युत्पत्ति समझें तो उसे 'संवसन्ति ऋतवो अत्र' (अर्थात् संवत्सर में सभी ऋतुएँ रहती हैं।) माना जाता है। अब यह ऋतुचक्र छ: ऋतुओं में से कहीं से भी प्रारंभ किया जा सकता है। वर्ष का, संवत्सर का प्रारंभ भी मनुष्य की मान्यताओं पर ही निर्भर करता है। जहाँ से प्रारंभ मान लिया जाय, उसी बिन्दु पर पुराने वर्ष का समापन और नये वर्ष का शुभारंभ माना जा सकता है। इसे भी विभिन्न क्षेत्रों और वर्गों के व्यक्तियों ने अपनी- अपनी आस्था के अनुसार निर्धारित कर लिया है। कहीं विक्रम, कही शक, कहीं ईसवी, कही हिजरी आदि वर्षों के प्रारंभ या समापन की तिथियाँ सम्बन्धित व्यक्तियों की आस्था के अनुसार मान ली गयी हैं। उन्हीं के अनुसार उल्लासभरी प्रवृत्तियों का क्रम चल पड़ता है।
यही नहीं, व्यवहार में देखें तो व्यक्तिगत मान्यताओं के अनुसार भी नये वर्ष का उत्साह उभरता है। जो जन्मदिन को महत्त्व देते हैं, वे जन्मदिन से जीवन के नये वर्ष की शुरुआत मानते हैं। विवाह दिन को महत्त्व देने वाले लोग भी उस दिन दाम्पत्य का नया वर्ष शुरू मान लेते हैं। गुरुदीक्षा को महत्त्व देने वाले व्यक्ति अपने दीक्षा दिवस को ही केन्द्र बिन्दु मानकर उल्लासभरी नयी गतिविधियाँ प्रारंभ करते हैं। उक्त तथ्यों के आधार पर किसी भी आस्थावान व्यक्ति के जीवन में नये वर्ष का नया उल्लास अनुभव करने के कई अवसर आते हैं। भारतीय संस्कृति के तत्त्व दर्शन के अनुसार तो रोज जागरण के साथ नया जन्म मानने वाले साधक प्रतिदिन उस नवीन उल्लास का अनुभव कर सकते और लाभ उठा सकते हैं।
क्या दे गया, क्या ले आया?
उक्त समीक्षात्मक चिन्तन के आधार पर निष्कर्ष यही निकलता है कि वर्ष या संवत्सर की अवधि ग्रह- नक्षत्रों की सापेक्ष गति के अनुसार निश्चित हो जाती है, लेकिन उस चक्र को कहाँ से शुरू करें, यह बात वर्ग विशेष या व्यक्ति विशेष की आस्था पर निर्भर करती है। लोक प्रचलन की दृष्टि से ईसवी सन् के साथ वर्ष परिवर्तन की लहर सबसे अधिक प्रभावी दिखती है। उसके अनुसार सन् २०१७ जा रहा है और वर्ष २०१८ आ रहा है। जो भी हो, आस्था या परम्परा के अनुसार जाने वाला वर्ष क्या देकर जाता है और नया वर्ष क्या लेकर आता है, इस पर चिन्तन करें तो निर्विवाद रूप से निम्नानुसार तथ्य सामने आते हैं।
• जाने वाला वर्ष कुछ बेशकीमती अनुभव देकर जाता है। इसके लिए उसके प्रति आभार व्यक्त किया जाना चाहिए।
• आने वाला वर्ष नये बहुमूल्य अवसर उपहार में लेकर आता है, उन उपहारों को स्वीकार- अंगीकार करना चाहिए। नये वर्ष की मान्यता के आधार पर जो आन्तरिक उल्लास उभरता है, उसे पुराने के प्रति आभार व्यक्त करने में और नये के उपहारों को स्वीकार करने में लगाना ही जीवन की प्रगति के लिए उपयोगी होता है। दोनों का अपना- अपना असाधारण महत्त्व है। सूझबूझ या विवेक की कमी के कारण लोग उनका लाभ नहीं उठा पाते।
भरपूर लाभ उठायें
मनुष्य का सहज स्वभाव है कि नयेपन के लिए उसके मन में उत्साह उभरता है। अपनी आस्था के अनुसार नये वर्ष को जीवन के लिए एक नयी सौगात मानकर कुछ नया करने का उत्साह, उल्लास उभरता है। सामान्य रूप से नये वस्त्र पहनकर खुशी प्रकट करने के लिए समारोह मानकर, अपनों को भेंट- उपहार देकर उस उत्साह- उल्लास को सार्थक मान लेते हैं। इसे किसी हद तक उचित मान लें, तो भी समय की एक मूल्यवान इकाई के अनुदानों को पाने की दृष्टि से पर्याप्त तो कतई नहीं है। कई बार तो यह हर्षाभिव्यक्ति विकृत होकर उल्टी हानिकारक हो जाती है। जैसे प्रसन्नता को नशे के साथ, अश्लील प्रसंगों के साथ जोड़ने की परम्परा प्रचलन में भले ही आ गयी हो किन्तु, वह ऐसे पावन प्रसंग के प्रतिकूल ही मानी जायेगी।
आस्था के अनुसार नया वर्ष अपने किसी श्रद्धास्पद व्यक्ति या प्रसंग के साथ सम्बद्ध होता है। उस श्रद्धास्पद के सुझाये आदर्शों को अपनाने में प्रसन्नता व्यक्त की जाये तो उसे संस्कृति का अंग कहा जा सकता है, किन्तु यदि वह उसके विपरीत प्रसंगों में व्यक्त की जाती है तो निश्चित रूप से उसे अविवेकपूर्ण विकृति ही कहा जायेगा। परमात्मसत्ता के समकक्ष समय की एक ईकाई के नाते उभरे उल्लास को विकृतियों से बचाकर संस्कृति से जोड़ने के विवेक और साहसपूर्ण प्रयास किए और कराये जाने चाहिए। जाने वाले वर्ष के अनुभव- आशीर्वाद और आने वाले के उपहार- अवसरों का पूरा लाभ उठाने की तैयारी की जानी चाहिए।
अनुभव :- अच्छे या बुरे, सफलता या असफलता दोनों प्रकार के अनुभव बेशकीमती होते हैं। उनका उपयोग भविष्य को संवारने, शानदार बनाने में किया जा सकता है। तमाम महान् व्यक्तियों ने ऐसा ही किया है। सफलता के अनुभव उत्साह बढ़ाते हैं और असफलता के अनुभव सही दिशा का बोध कराके जाते हैं। बीते वर्ष द्वारा दिए गये अनुभवों को उसका आशीर्वाद मानकर प्रसन्नतापूर्वक नये वर्ष में प्रवेश करने का मन बनाना चाहिए।
विगत वर्ष से अनुभव लेने की जगह यदि शिकवा- शिकायतें की जायें तो कुछ मिलने वाला नहीं। ऐसा न होता तो अच्छा होता, ऐसा होता तो कुछ अधिक लाभ होता। यह चिन्तन हाथ में आये समय को व्यर्थ गँवाने और मानसिक तनाव या व्यथा देने के अतिरिक्त और कुछ नहीं दे पाता। बीते वर्ष द्वारा दिए गये अनुभवों के लिए उसका आभार मानने वाले व्यक्ति नये वर्ष द्वारा लाये जाने वाले अवसरों- उपहारों का भली प्रकार लाभ उठा पाते हैं।
अवसर- समय के प्रवाह के साथ आते हैं और निकल जाते हैं। वे किसी की प्रतीक्षा नहीं करते। जो निकल गया वह बेकार गया और साथ में टैक्स के रूप में हमारा उतना समय लेता गया। जो आ रहा है, उसकी कीमत हमारे द्वारा किए गये उपयोग के आधार बनती है। उपयोग अनुभवों और तत्परता, कर्मठता के माध्यम से ही किया जाता है। विगत के आशीर्वाद रूप अनुभवों को संजोइये और अपनी पूरी तत्परता से आगत के द्वारा भेंट में दिए जाने वाले अवसरों को अंगीकार करने की तैयारी कीजिए।
हिम्मत मत हारिए :- जी हाँ, अवसर आया और हम चूक गये, इससे निराश मत होइये। इससे अपनी तत्परता घट जाती है और आने वाले नये अवसर का लाभ उठाने की संभावना भी कम हो जाती है।
यों समझिये :- आप क्रिकेट खेल रहे हैं। बल्ला आपके हाथ में है। हर अवसर एक गेंद के रूप में आता है। किसी को आप बल्ले पर नहीं ले पाते। किसी शॉट को विरोधी टीम के खिलाड़ी रोक लेते हैं। कोई बात नहीं। ध्यान रखिये कि इस खेल में कितनी ही बॉलें बल्ले पर न आयें या स्ट्रोक रोक लिए जायें, आप तब तक आउट नहीं होते जब तक आप स्वयं बल्ला रख नहीं देते। निराश होना स्वयं ही बल्ला रख देना है। खेल भावना के साथ जमे रहिए। अनुभवों का इस्तेमाल कीजिए, बल्ले पर पकड़ मजबूत रखिये, हर बाल (अवसर) को पूरी तत्परता से लीजिए। रन बनेगा, चौके- छक्के भी लगेंगे।
जी हाँ तो पुराना वर्ष बहुमूल्य अनुभव देकर जा रहा है और नया वर्ष बहुमूल्य अवसर लेकर आ रहा है। हमें नये वर्ष में, नयी पारी अधिक तत्परता, प्रसन्नता के साथ खेलनी है। करिए तैयारी। पुराने को अलविदा कहकर, नये के स्वागत में समारोह मनाकर ही न रह जाइये। पुराने के अनुभव आशीर्वाद के साथ नये के अवसर- उपहारों को अंगीकार करने की तैयारी कीजिए।
नया वर्ष मंगलमय हो- विकासमय हो।