दो विकल्प
आत्मा की परिपूर्णता प्राप्त कर परमात्मा में प्रतिष्ठित होने के दो मार्ग हैं- एक प्रयत्नपूर्वक प्राप्त करना और दूसरा अपने आपको सौंप देना। प्रथम मार्ग में विभिन्न साधनाएँ करनी पड़ती हैं, चिन्तन, मनन, ज्ञान के द्वारा विभिन्न उपक्रमों में सचेष्ट रहना पड़ता है। दूसरी ओर सम्पूर्ण भाव से परमात्मा के प्रति समर्पण करना पड़ता है। तरह- तरह की साधनाएँ, विधि- विधानों का अवलम्बन लेकर प्रयत्नपूर्वक ईश्वर- प्राप्ति की आकांक्षा रखने वाले बहुत मिल सकते हैं, किन्तु सम्पूर्ण भाव से अपने परमदेव के समर्पण हो जाने वाले, जीवन में सर्वत्र ही परमात्मा को प्रतिष्ठित करने वाले, अपनी समस्त बागडोर प्रभु के हाथों सौंप कर उसकी इच्छानुसार संसार के महाभारत में लड़ने वाले अर्जुन विरले ही होते हैं।
अर्जुन स्वयं एक नैष्ठिक साधक, दृढ़व्रती थे। जीवन में कठोर साधनाओं और तपश्चर्याओं के द्वारा उन्होंने अनेकों उत्कृष्ट सफलताएँ अर्जित की थीं। किन्तु इन सबके बावजूद भी रणक्षेत्र में हुए विषाद, खिन्नता को वे शान्त न कर सके, न अपने कर्तव्य का निर्धारण ही। मोह और विषाद से खिन्नमना अर्जुन अन्त में भगवनान के चरणों में गिरकर कहने लगे :-
कार्पण्यदोषोपहतस्वभाव: पृच्छामि त्वां धर्मसंमूढ़चेता:। यच्छेय: स्यानिश्चितं बू्रहि तन्मे, शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।।
अर्थात्- हे प्रभो! कायरता रूपी आंतरिक दोष के द्वारा मेरा साहसिक स्वभाव आहत हो गया। मैं धर्म सम्मूढ़ (धर्म के बारे में संशय की स्थिति में) हूँ। मैं आपकी शरण में आया आपका शिष्य हूँ। जिसमें मेरा निश्चित रूप से हित है, वह मुझे बताइये। महान विचारक संत कबीर ने कहा है :-
मेरा मुझ में कुछ नहीं, जो कुछ है सो तोर। तेरा तुझको सौंपते, क्या लागत है मोर।।
जीवनभर की साधना, साधु संगति, उपासना, ज्ञानार्जन के बावजूद भी संत कबीर अपने आप में संतुष्ट नहीं हुए। अंत में अपने समस्त जीवन को प्रभु- समर्पण करने में ही उनको जीवन का संतोष लाभ मिला।
प्रभु प्राप्ति की प्रमुख बाधा
विभिन्न साधनाओं, व्रत, तपश्चर्याओं में अपनी शक्ति का परिचय देकर अपनी साधना का हिसाब लगाने वाले साधकों में एक प्रकार का विशेष सात्विक अहंकार पैदा हो जाता है और यही एक दीवार बनकर आत्मा और परमात्मा के बीच अवरोध खड़ा कर देता है। इसे ही शास्त्रकारों ने ज्ञानजन्य अन्धकार कहा है। यही कारण है कि ज्ञानी, ध्यानी, तपस्वी, सिद्ध, योगी बनना दूसरी बात है, किन्तु सम्पूर्ण भाव से परमात्मा की उपलब्धि करना, उसमें प्रतिष्ठित होना सर्वथा भिन्न है।
विभिन्न साधनाओं के रहते भी अपने समस्त कर्तृत्व, अहंकार, निजत्व की भावनाओं को मिटाकर समस्त जीवन को प्रभु चरणों में समर्पण किये बिना परमात्मा में प्रतिष्ठित होना संभव नहीं है।
सन्त विनोबा भावे ने कहा है, "चित्त शुद्धि के लिए की जाने वाली विविध साधनाओं को मैं सोडा या साबुन की उपमा दूँगा और ईश्वर के प्रति आत्म- समर्पण के भाव को जल की संज्ञा दूँगा। सोडा- साबुन जल के बिना काम नहीं दे सकते, किन्तु सोडा- साबुन के बिना निर्मल जल से भी सफाई का काम हो जाता है।
समर्पण की कसौटी
परमात्मा से साक्षात्कार, उनमें प्रतिष्ठित होने का सरल और सहज मार्ग है अपनी शक्ति- सामर्थ्य, कर्तव्य के अभिमान का त्याग करना और सम्पूर्ण भाव से परमात्मा को अपने आप का निवेदन समर्पण करना। तब सर्वत्र ही सबके साथ समानता, नम्रता, उदारता आत्मीयता का सम्बन्ध बढ़ता जाता है। तब हममें सबसे ऊपर और सबके आगे रहने की प्रवृत्ति नहीं होगी, वरन् सबके पीछे और नीचे प्रभु के चरण कमलों में हमारा जीवन होगा। 'सबके हित में अपना हित, सबके सुख में अपना सुख।' यदि इन उदार भावनाओं और चरित्र का गठन नहीं होता है तो हमारा आत्म- समर्पण अधूरा है, अथवा हम आत्म- समर्पण का स्वाँग रच रहे हैं।
प्रभु आपकी क्या इच्छा है? आपका क्या आदेश है देव? यह प्रश्न निरन्तर अन्तर में उठता रहे तो इसमें कोई सन्देह नहीं कि परमात्मा अपनी इच्छा, प्रेरणानुसार हमें सहज ही लक्ष्य तक पहुँचा देंगे। दिव्य प्रेरणाओं से मानव जीवन दिव्य कर्मों में प्रयुक्त होने लगता है और मनुष्य सहज ही श्रेय की प्राप्ति कर लेता है। आत्मा की परिपूर्णता प्राप्त होकर परमात्मा में गति मिलती है।
इसलिए मनीषियों ने ज्ञान- विज्ञान उपासना- साधना क्षेत्र में पर्याप्त खोज करने के उपरान्त ही कहा है "पिता नोऽसि।" अर्थात् "आप हमारे पिता हैं।" हे प्रभु! आप हमारे पिता हैं, आप ही हमारी माँ हैं, आप ही बन्धु- सखा सब कुछ आप ही हैं। आप ही सर्वोपरि विद्या धन सम्पदाएँ हैं। आप ही हमारे जीवन के देवाधिदेव सर्वेश्वर प्रभु हैं।
परमात्मा में प्रतिष्ठित होने के लिए, उन्हें प्राप्त करने के लिए अपने समस्त जीवन की बागडोर उन्हीं के हाथों सौंपनी पड़ेगी। उन्हें ही हृदय मन्दिर में प्रतिष्ठित करना होगा। उन्हीं की इच्छा- प्रेरणा को जीवन का मंत्र बनाना पड़ेगा। सम्पूर्ण भाव से उनकी ही शरण में जाना पड़ेगा। अन्यथा हमारा अभियान, आकांक्षाएँ, कर्तृत्व की भावना, इच्छाएँ, कामनाएँ, ऐषणाएँ न जाने हमें कहाँ दुर्गति के गर्त में ले जा पटकेंगी।
पाना नहीं, सौंपना सीखो
वस्तुत: "परमात्मा को प्राप्त करना है।" यह कहना ही अयुक्त है। वे तो सर्वत्र विराजमान हैं, व्याप्त हैं, जन- जन के हृदय में प्रतिष्ठित हैं। किन्तु फिर भी हम उन्हें नहीं देख पाते, परमपिता के पावन अंक में नहीं खेल पाते, उनमें एकाकार नहीं हो पाते, इसका कारण हमारी अपनी ही कमी है। हम अपने आपको (अहं) के क्षुद्र- संकीर्ण घेरे में आबद्ध किए बैठे हैं। हमारी उपासना, हमारी साधना परिपूर्ण भाव से स्वयं को उन्हें सौंप देने को नहीं होती, वरन् गणना और मूल्यांकन द्वारा अपने कर्तृत्व के अभिमान की सुखद मादकता से युक्त होने, अपने आपको विशेष समझने, सिद्ध करने के लिए होती है। तभी तो हम उनसे विलग है।
सावधान रहो, दुर्घटना से बचो
ईश्वर के प्रति आत्म- समर्पण करने का यह अर्थ नहीं है कि हम जो कुछ करें वह सब ईश्वर कर रहे हैं। यदि यह धारणा बना ली जायेगी तो एक बहुत बड़ी भूल होगी और हमारे आध्यात्मिक जीवन में एक गंभीर दुर्घटना समझी जायेगी। आत्म- समर्पण के बल पर अपनी बुराइयों, दुष्कृत्यों को पोषण देना, अपने कृत्यों द्वारा प्राप्त असफलता को ईश्वर के मत्थे मढ़ना आत्म समर्पण की भावना के अनुकूल नहीं है। यह तो एक तरह की विडम्बना और आत्म- प्रवंचना है। समर्पण का अर्थ है- पूर्णरूपेण प्रभु को हृदय में स्वीकार करना, उनकी इच्छा प्रेरणाओं के प्रति सदैव जागरूक रहना, जीवन के प्रत्येक क्षण में उसे परिणत करते रहना।
आत्मा की परिपूर्णता प्राप्त कर परमात्मा में प्रतिष्ठित होने के दो मार्ग हैं- एक प्रयत्नपूर्वक प्राप्त करना और दूसरा अपने आपको सौंप देना। प्रथम मार्ग में विभिन्न साधनाएँ करनी पड़ती हैं, चिन्तन, मनन, ज्ञान के द्वारा विभिन्न उपक्रमों में सचेष्ट रहना पड़ता है। दूसरी ओर सम्पूर्ण भाव से परमात्मा के प्रति समर्पण करना पड़ता है। तरह- तरह की साधनाएँ, विधि- विधानों का अवलम्बन लेकर प्रयत्नपूर्वक ईश्वर- प्राप्ति की आकांक्षा रखने वाले बहुत मिल सकते हैं, किन्तु सम्पूर्ण भाव से अपने परमदेव के समर्पण हो जाने वाले, जीवन में सर्वत्र ही परमात्मा को प्रतिष्ठित करने वाले, अपनी समस्त बागडोर प्रभु के हाथों सौंप कर उसकी इच्छानुसार संसार के महाभारत में लड़ने वाले अर्जुन विरले ही होते हैं।
अर्जुन स्वयं एक नैष्ठिक साधक, दृढ़व्रती थे। जीवन में कठोर साधनाओं और तपश्चर्याओं के द्वारा उन्होंने अनेकों उत्कृष्ट सफलताएँ अर्जित की थीं। किन्तु इन सबके बावजूद भी रणक्षेत्र में हुए विषाद, खिन्नता को वे शान्त न कर सके, न अपने कर्तव्य का निर्धारण ही। मोह और विषाद से खिन्नमना अर्जुन अन्त में भगवनान के चरणों में गिरकर कहने लगे :-
कार्पण्यदोषोपहतस्वभाव: पृच्छामि त्वां धर्मसंमूढ़चेता:। यच्छेय: स्यानिश्चितं बू्रहि तन्मे, शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।।
अर्थात्- हे प्रभो! कायरता रूपी आंतरिक दोष के द्वारा मेरा साहसिक स्वभाव आहत हो गया। मैं धर्म सम्मूढ़ (धर्म के बारे में संशय की स्थिति में) हूँ। मैं आपकी शरण में आया आपका शिष्य हूँ। जिसमें मेरा निश्चित रूप से हित है, वह मुझे बताइये। महान विचारक संत कबीर ने कहा है :-
मेरा मुझ में कुछ नहीं, जो कुछ है सो तोर। तेरा तुझको सौंपते, क्या लागत है मोर।।
जीवनभर की साधना, साधु संगति, उपासना, ज्ञानार्जन के बावजूद भी संत कबीर अपने आप में संतुष्ट नहीं हुए। अंत में अपने समस्त जीवन को प्रभु- समर्पण करने में ही उनको जीवन का संतोष लाभ मिला।
प्रभु प्राप्ति की प्रमुख बाधा
विभिन्न साधनाओं, व्रत, तपश्चर्याओं में अपनी शक्ति का परिचय देकर अपनी साधना का हिसाब लगाने वाले साधकों में एक प्रकार का विशेष सात्विक अहंकार पैदा हो जाता है और यही एक दीवार बनकर आत्मा और परमात्मा के बीच अवरोध खड़ा कर देता है। इसे ही शास्त्रकारों ने ज्ञानजन्य अन्धकार कहा है। यही कारण है कि ज्ञानी, ध्यानी, तपस्वी, सिद्ध, योगी बनना दूसरी बात है, किन्तु सम्पूर्ण भाव से परमात्मा की उपलब्धि करना, उसमें प्रतिष्ठित होना सर्वथा भिन्न है।
विभिन्न साधनाओं के रहते भी अपने समस्त कर्तृत्व, अहंकार, निजत्व की भावनाओं को मिटाकर समस्त जीवन को प्रभु चरणों में समर्पण किये बिना परमात्मा में प्रतिष्ठित होना संभव नहीं है।
सन्त विनोबा भावे ने कहा है, "चित्त शुद्धि के लिए की जाने वाली विविध साधनाओं को मैं सोडा या साबुन की उपमा दूँगा और ईश्वर के प्रति आत्म- समर्पण के भाव को जल की संज्ञा दूँगा। सोडा- साबुन जल के बिना काम नहीं दे सकते, किन्तु सोडा- साबुन के बिना निर्मल जल से भी सफाई का काम हो जाता है।
समर्पण की कसौटी
परमात्मा से साक्षात्कार, उनमें प्रतिष्ठित होने का सरल और सहज मार्ग है अपनी शक्ति- सामर्थ्य, कर्तव्य के अभिमान का त्याग करना और सम्पूर्ण भाव से परमात्मा को अपने आप का निवेदन समर्पण करना। तब सर्वत्र ही सबके साथ समानता, नम्रता, उदारता आत्मीयता का सम्बन्ध बढ़ता जाता है। तब हममें सबसे ऊपर और सबके आगे रहने की प्रवृत्ति नहीं होगी, वरन् सबके पीछे और नीचे प्रभु के चरण कमलों में हमारा जीवन होगा। 'सबके हित में अपना हित, सबके सुख में अपना सुख।' यदि इन उदार भावनाओं और चरित्र का गठन नहीं होता है तो हमारा आत्म- समर्पण अधूरा है, अथवा हम आत्म- समर्पण का स्वाँग रच रहे हैं।
प्रभु आपकी क्या इच्छा है? आपका क्या आदेश है देव? यह प्रश्न निरन्तर अन्तर में उठता रहे तो इसमें कोई सन्देह नहीं कि परमात्मा अपनी इच्छा, प्रेरणानुसार हमें सहज ही लक्ष्य तक पहुँचा देंगे। दिव्य प्रेरणाओं से मानव जीवन दिव्य कर्मों में प्रयुक्त होने लगता है और मनुष्य सहज ही श्रेय की प्राप्ति कर लेता है। आत्मा की परिपूर्णता प्राप्त होकर परमात्मा में गति मिलती है।
इसलिए मनीषियों ने ज्ञान- विज्ञान उपासना- साधना क्षेत्र में पर्याप्त खोज करने के उपरान्त ही कहा है "पिता नोऽसि।" अर्थात् "आप हमारे पिता हैं।" हे प्रभु! आप हमारे पिता हैं, आप ही हमारी माँ हैं, आप ही बन्धु- सखा सब कुछ आप ही हैं। आप ही सर्वोपरि विद्या धन सम्पदाएँ हैं। आप ही हमारे जीवन के देवाधिदेव सर्वेश्वर प्रभु हैं।
परमात्मा में प्रतिष्ठित होने के लिए, उन्हें प्राप्त करने के लिए अपने समस्त जीवन की बागडोर उन्हीं के हाथों सौंपनी पड़ेगी। उन्हें ही हृदय मन्दिर में प्रतिष्ठित करना होगा। उन्हीं की इच्छा- प्रेरणा को जीवन का मंत्र बनाना पड़ेगा। सम्पूर्ण भाव से उनकी ही शरण में जाना पड़ेगा। अन्यथा हमारा अभियान, आकांक्षाएँ, कर्तृत्व की भावना, इच्छाएँ, कामनाएँ, ऐषणाएँ न जाने हमें कहाँ दुर्गति के गर्त में ले जा पटकेंगी।
पाना नहीं, सौंपना सीखो
वस्तुत: "परमात्मा को प्राप्त करना है।" यह कहना ही अयुक्त है। वे तो सर्वत्र विराजमान हैं, व्याप्त हैं, जन- जन के हृदय में प्रतिष्ठित हैं। किन्तु फिर भी हम उन्हें नहीं देख पाते, परमपिता के पावन अंक में नहीं खेल पाते, उनमें एकाकार नहीं हो पाते, इसका कारण हमारी अपनी ही कमी है। हम अपने आपको (अहं) के क्षुद्र- संकीर्ण घेरे में आबद्ध किए बैठे हैं। हमारी उपासना, हमारी साधना परिपूर्ण भाव से स्वयं को उन्हें सौंप देने को नहीं होती, वरन् गणना और मूल्यांकन द्वारा अपने कर्तृत्व के अभिमान की सुखद मादकता से युक्त होने, अपने आपको विशेष समझने, सिद्ध करने के लिए होती है। तभी तो हम उनसे विलग है।
सावधान रहो, दुर्घटना से बचो
ईश्वर के प्रति आत्म- समर्पण करने का यह अर्थ नहीं है कि हम जो कुछ करें वह सब ईश्वर कर रहे हैं। यदि यह धारणा बना ली जायेगी तो एक बहुत बड़ी भूल होगी और हमारे आध्यात्मिक जीवन में एक गंभीर दुर्घटना समझी जायेगी। आत्म- समर्पण के बल पर अपनी बुराइयों, दुष्कृत्यों को पोषण देना, अपने कृत्यों द्वारा प्राप्त असफलता को ईश्वर के मत्थे मढ़ना आत्म समर्पण की भावना के अनुकूल नहीं है। यह तो एक तरह की विडम्बना और आत्म- प्रवंचना है। समर्पण का अर्थ है- पूर्णरूपेण प्रभु को हृदय में स्वीकार करना, उनकी इच्छा प्रेरणाओं के प्रति सदैव जागरूक रहना, जीवन के प्रत्येक क्षण में उसे परिणत करते रहना।