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शब्दों से परे भी गायत्री महामंत्र के भावों की महत्ता अद्भुत- अनुपम है

जिन्हें भी सत्य की झलक मिली उन्होंने वही भाव अपनाये, दिव्य अनुदान पाये 
अद्भुत श्रेष्ठतम मंत्र 
भारतीय आर्ष ग्रंथों में तो गायत्री महामंत्र की महत्ता मुक्त कंठ से गायी ही गयी है, अन्य देशों और अन्य सम्प्रदायों के आध्यात्मिक साधकों, विचारकों ने भी उसे अद्भुत, अनुपम कहा है। मंत्रों की विशेषता उनके शब्द गठन से भी होती है और उनमें सन्निहित भावों से भी। गायत्री मंत्र    के बारे में भी सिद्ध साधकों के उसी प्रकार के अनुभव हैं। 

थियोसॉफिकल सोसाइटी विश्वमान्य आध्यात्मिक संगठन है। सवा सौ से अधिक देशों में उसका समर्थ तंत्र फैला हुआ है। उक्त संगठन के सम्मेलन जहाँ भी होते हैं, उसका शुभारम्भ भारतीय परम्परा के अनुरूप विशेष सामूहिक पूजा प्रक्रिया से साथ किया जाता है। उस पूजन पद्धति को 'भारत समाज पद्धति' कहा जाता है। उसकी एक छोटी पुस्तिका इसी नाम से प्रकाशित है, जिसके आधार पर सभी साधक सामूहिक पूजन में भाग लेते हैं। उक्त पुस्तक की भूमिका में 'पादरी लैडबिटर' ने गायत्री मंत्र के बारे में महत्वपूर्ण अनुभव प्रकाशित किए हैं। 

श्री लैडबिटर आॅकल्टिस्ट (दिव्य दृष्टि प्राप्त साधक) थे। वे विभिन्न आध्यात्मिक प्रयोगों से होने वाले सूक्ष्म जगत के प्रभावों, प्रतिक्रियाओं को देख- समझ लेते थे। उनके अनुभव का सार- संक्षेप कुछ इस प्रकार है:- 

'गायत्री मंत्र के भावपूर्ण जप का प्रभाव सूक्ष्म जगत में तत्काल परिलक्षित होता है। अनन्त आकाश से दिव्य ऊर्जा का किरण पुंज साधक के शरीर पर अवतरित होता दिखता है। वह दिव्य प्रकाश साधक के सामने की ओर शंकु (कोनिकल) आकार में एक प्रकाशमान बिन्दु पर केन्द्रित(फोकस) हो जाता है। उसका प्रभाव क्षेत्र साधक के स्तर के अनुरूप कम- अधिक होता है। लगता है कि यह प्रकाश बिन्दु सद्भाव एवं सद्विचार संचारक होता है। उसके प्रभाव क्षेत्र में यदि कोई व्यक्ति आ जाता है तो वह प्रकाश पुंज मुड़कर उस व्यक्ति के हृदय और मस्तिष्क को स्पर्श करता है। यदि गायत्री मंत्र का भाषानुवाद किसी भी भाव में किया जाए तो उसके जप से भी इसी प्रकार का प्रभाव परिलक्षित होता है। संस्कृत भाषा में मूल मंत्र के प्रभाव से उस प्रकाश पुंज के चारों ओर प्रकाश की कलात्मक संरचना विशेष रूप से दिखती है।

श्री लैडबिटर की यह अनुभूति भारतीय ऋषि- मनीषियों के द्वारा वर्णित गायत्री महामंत्र की महत्ता के अनुरूप है। इस बात से यह तथ्य भी स्पष्ट होता है कि मंत्र का प्रभाव साधक की भावना के अनुसार ही प्रकट होता है। भाषा बदलने से कोई खास अन्तर नहीं पड़ता। विश्व में सभी भाषाओं और सभी मतों के साधक इस मंत्र का लाभ सहजता से उठा सकते हैं। 
मंत्र के भाव सूत्र 
गायत्री मंत्र त्रिपदा- तीन चरण वाला है। १- 'तत्सवितुर्वरेण्यं', २- 'भर्गो देवस्य धीमहि' और ३. 'धियो यो न: प्रचोदयात'। ॐ भूर्भुवः स्व: को उसका शीर्ष कहा जाता है। उसके मुख्य भाव इस प्रकार समझे जा सकते हैं  
• परमात्मा सर्वव्यापी है उसे सबके जन्मदाता (माता- पिता) के रूप में अनुभव किया जाय। • वह सविता ही हम सबके लिए वरणीय (श्रेष्ठ, सराहनीय, हितकारी) है। • उसके भर्ग (दोषों से मुक्त करने वाले पवित्र तेज) को अपने अंदर धारण करें। उसी की भक्ति करें। • वह हमें सन्मार्ग पर प्रेरित करे। उसी की इच्छा के अनुरूप हम सब का जीवन चले। 
सत्य तो सत्य है। किसी भी मार्ग पर श्रद्धापूर्वक चलने वाले साधक सत्य की अनुभूति करते ही हैं। साम्प्रदायिक पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर विवेकपूर्वक अध्ययन करने पर गायत्री का तत्त्वज्ञान और उसके सत्परिणामों के प्रमाण अन्य सम्प्रदायों में भी मिल जाते हैं। यहाँ ईसाई और इस्लाम सम्प्रदायों के अन्तर्गत गायत्री के तत्त्वज्ञान पर प्रकाश डालने का प्रयास किया जा रहा है। 
ईसाई मत ईसाई मत का सर्वमान्य ग्रंथ बाइबिल है। सबसे श्रेष्ठ प्रार्थना के रूप में (गॉड्स प्रेयर) ईश्वर की प्रार्थना को मान्यता प्राप्त है। बाइबिल के अध्याय 'मथ्यू' (६.९- १३) में यह प्रार्थना है। हिन्दी में उसके प्रारम्भिक चरण इस प्रकार हैं- 
मंत्र :- • ओ स्वर्ग में रहने वाले हमारे पिता! आपका नाम सराहा- सम्मानित किया जाय। • आपका साम्राज्य आये आये। • आपकी इच्छा पृथ्वी पर भी उसी प्रकार चले जैसे स्वर्ग में चलती है। 

उक्त भाव गायत्री मंत्र के ही अनुरूप है। ईश्वर को पिता, जन्मदाता- सविता के रूप में याद किया गया है। उन्हें सराहनीय, श्रेष्ठ (वरणीय) माना  गया है। उनका साम्राज्य उनके तेज- प्रभाव को अंगीकार करने का भाव (दिव्य भर्ग धारण करने) का द्योतक है। अपनी इच्छा को छोड़कर प्रभु की इच्छा के अनुसार विश्व व्यवस्था बने, यह चरण गायत्री मंत्र के धियो यो न: प्रचोदयात' पद के अनुसार ही है। गायत्री मंत्र की तरह इसमें  भी प्रार्थना व्यक्ति विशेष (मेरे लिए नहीं) न: (हम सबके लिए) की गयी है। प्रभाव :- गायत्री मंत्र के प्रभाव के बारे में अथर्ववेद का मंत्र "स्तुता मया वरदा......।" प्रसिद्ध है। 
मंत्र :- स्तुता मया वरदा वेदमाता प्रचोदयन्ताम्, पावमानी, द्विजानां, आयु:, प्राणं, प्रजां, पशुं, कीर्तिं, द्रविणं, मह्यम दत्वा व्रजत ब्रह्मलोकम। 
इस मंत्र का भावार्थ यह है कि वेदमाता गायत्री दिव्य प्रेरणा एवं पवित्रता देने वाली है। यह साधक को इस लोक में श्रेष्ठ आयु, सभी तरह की लौकिक संपन्नता तथा पवित्र यश प्रदान करती है। आयु पूर्ण होने पर ब्रह्मलोक- सद्गति का मार्ग प्रशस्त कर देती है। भारत में तो तमाम ऋषियों- साधकों के जीवन में गायत्री साधना के उक्त लाभ मिलने के अनेक प्रमाण मिलते हैं। बाइबिल के अध्याय ३ में भी ऐसी कथा मिलती है। कथा  
ईश्वर ने राजा सोतोमन को दिया अद्भुत वरदान 
ईश्वर भक्त राजा डेवडि ने अपने ईश्वर भक्त पुत्र सोलोमन को राज्य सौंप दिया। सोतोमन ने पवित्र क्षेत्र (तीर्थ) में जाकर प्रभु के नाम पर आहुतियाँ (बर्न्ट आॅफरिंग्स) दीं। उसकी निष्ठा से प्रभु प्रसन्न हुए और प्रगट होकर इच्छित वरदान माँगने को कहा। 
सालोमन ने कहा- • हे प्रभु! आपने अपने सेवक, मेरे पिता पर विशेष कृपा की इसलिए वह हृदय की शुद्धता, सत्य और सज्जनता के मार्ग पर चला। आपने उस पर एक विशेष कृपा यह की कि उसे राज्य सँभालने योग्य एक पुत्र (मुझे) दिया। 
• हे प्रभु! आपने मेरे पिता की जगह मुझे राजा भी बना दिया, लेकिन मैं तो एक अबोध बालक जैसा हूँ, जो सामान्य व्यवहार भी नहीं जानता। आपका यह सेवक आपके द्वारा चुने गये अगणित महान व्यक्तियों के बीच रह रहा है। 
• इसलिए हे प्रभु! आप मुझे एक संवेदनशील (सद्भावनायुक्त) हृदय दें, ताकि मैं लोगों की भावनाओं को समझ सकूँ। साथ ही मुझे भले- बुरे में  अंतर करने में समर्थ सद्विवेक भी प्रदान करें, ताकि मैं आपके द्वारा चुने गये महान व्यक्तियों के बीच न्याय कर सकूँ। 
इस प्रकार श्रेष्ठ आशीर्वाद माँगने के कारण प्रभु सोलोमन पर प्रसन्न हुए। प्रभु ने कहा "तुमने न तो अपने लिए लम्बी उम्र और धन- दौलत की माँग की और न अपने शत्रुओं के अहित की कामना की, बल्कि तुमने अपने लिए समझदारी और न्याय करने की क्षमता माँगी, इसलिए मैं प्रसन्न हूँ।" 
सुनो, मैं तुम्हारे कहे अनुसार तुम्हें सद्विवेक और संवेदनशीलता तो देता ही हूँ, इसी के साथ जो तुमने नहीं माँगी वे दोनों लोकों की सम्पत्ति और    सम्मान भी देता हूँ। अगर तुम अपने पिता डेविड की तरह मेरे रास्ते पर बढ़ते रहे, मेरे रास्ते के अनुसार चले और मेरे निर्देशों को पालन करते रहे तो मैं तुम्हारी आयु भी बढ़ा दूँगा।" 
कथा से स्पष्ट है विश्व स्रजेता प्रभु (परमपिता या आद्यशक्ति) का विशेष अनुग्रह सद्भावना एवं सद्विवेक प्राप्त करके लोकहित की कामना करने  वालों को प्राप्त होता है। उसे वे बिना माँगे ही दोनों लोकों (पृथ्वी और स्वर्ग) की श्रेष्ठ विभूतियाँ प्रसन्नतापूर्वक प्रदान करते हैं। वेद के मंत्र द्रष्टा और बाइबिल के ईश्वरीय संदेशवाहक दोनों के भाव एक जैसे ही हैं। उनमें देश, काल और परिस्थिति के अनुसार भाषा का अन्तर भर दिखाई देता है। 
इस्लाम का मत 
इस्लाम का सर्वमान्य ग्रंथ 'क़ुरान शरीफ़' है। वेदों की तरह 'कुरान' को भी ईश्वर द्वारा प्रेषित ज्ञान माना जाता है। सनातन- वैदिक मत में गायत्री  महामंत्र को जिस प्रकार महत्ता दी गयी है, उसी प्रकार इस्लाम में 'सूरह फ़ातिहा' अथवा 'अल हम्द शरीफ़' का महत्व माना गया है। संत विनोबा भावे ने क़ुरान के अनुवाद 'रुहल क़ुरान' अर्थात् 'क़ुरान सार' में सूरह फ़ातिहा को क़ुरान का मंगलाचरण कहा है। इस्लाम की हर महत्वपूर्ण इबादत में फ़ातिहा' को शामिल किया जाता है। गायत्री मंत्र को वेदमाता की संज्ञा दी गयी है तो 'सूरह फ़ातिहा'  को भी 'उम्मुल क़िताब' (ज्ञान की माँ) कहा गया है।   डॉ. मोहम्मद हनीफ़ ख़ाँ शास्त्री ने दरभंगा (बिहार) के कामेश्वर सिंह दरभंगा विश्वविद्यालय से 'महामंत्र गायत्री और सूरह फ़ातिहा' विषय पर संस्कृत में पीएच.डी. (Ph.d) किया है। इसी नाम से उनकी पुस्तक हिन्दी में भी प्रकाशित हुई है। उसमें उन्होंने लिखा है :- 
"अब जहाँ तक सूरह फ़ातिहा की बात है, वह गायत्री मंत्र से अलग नहीं है। यदि द्वेषरहित एवं उदारतापूर्वक इसके वाक्यांशों पर विचार किया जाय तो ऐसा प्रतीत होता है कि 'सूरह फ़ातिहा' सूत्ररूप गायत्री मंत्र की व्याख्यास्वरूप है।" डॉ. हनीफ़ शास्त्री ने विस्तार से दोनों मंत्रों के विभिन्न चरणों की समीक्षा करके उन्हें एक दूसरे के अनुरूप सिद्ध किया है। संक्षेप में इस तथ्य को यहाँ स्पष्ट करने का प्रयास किया जा रहा है। सूरह फ़ातिहा अर्थ सहित इस प्रकार है। 
'विस्मिल्लार्रहमानर्रहीम'- शुरू करते हैं अल्लाह के नाम से, जो अत्यंत दयालु और कृपालु है। इस सूत्र को गायत्री महामंत्र के शीर्ष 'ॐ भूर्भुव: स्व:' के अनुरूप माना जाता है। ॐ अक्षर परमेश्वर- अल्लाह का बोधक है। उसे गुणों के रूप में प्राणस्वरूप, दु:खनाशक, सुखस्वरूप कहा गया है। इस्लाम ने उसे दयालु और कृपालु के रूप में याद करने की अपील की है। 
'अल्हम्द लिल्लाहरब्बिल् आलमीन' अर्थात् सारी प्रशंसाएँ- स्तुतियाँ अल्लाह के लिए हैं जो सारे ब्रह्माण्ड का पालन- पोषण करने वाला है। यह सूत्र गायत्री मंत्र के प्रथम चरण 'तत्सवितुर्वरेण्यं' के अनुरूप है। सविता रूप- सबका पालन- पोषण करने वाला परमात्मा ही वरणीय- प्रसंशनीय है। 
'अर्रहमानर्रहीम मालिकीयोमिद्दीन'- वह रहमतों (दया- कृपा) की बारिश करने वाला और अन्तिम न्याय करने वाला है। इसे गायत्री मंत्र के दूसरे चरण 'भर्गो देवस्य धीमहि' के समभाव वाला माना जाता है। दयालु देव के भर्ग- तेज, उसकी सामर्थ्य का ही ध्यान किया जाय। वही हमारे  पापों को नष्ट करके हमारे अन्दर देवत्व को विकसित कर सकता है। 
'इय्याक़नअबुदु व इय्याक नस्तईन'- हम तेरी ही भक्ति करते हैं और तुझसे ही मदद चाहते हैं। यह सूत्र भी ऊपर वाले सूत्र का ही पूरक है। उसी दिव्य तेज सम्पन्न की शरण में जाकर उसीसे उम्मीद रखने वाले ही सच्चे भक्त कहला सकते हैं। उससे हम क्या उम्मीद, आशा- अपेक्षा करें? 
'इहिदि नस्सिरात्तलमुस्तक्रीम' अर्थात (हे परमेश्वर!) हमको सीधी राह पर चला। यह सूत्र गायत्री मंत्र के तीसरे चरण "धियो योन: प्रचोदयात' के  समानार्थक है। मनुष्य संसार से प्रभावित होकर उसी से प्रेरणा लेने लगता है और भटक जाता है। ईश्वर भटकने न दे। हमें प्रगति और सद्गति के परम लक्ष्य की तरफ सीधी राह पर चला दे, यही प्रार्थना सच्चे भाव से की जानी चाहिए। इस सूत्र में भी 'मैं' की जगह हम सबके लिए प्रार्थना  की गयी है। 
सूरह फ़ातिहा के इन सूत्रों में गायत्री महामंत्र का पूरा भाव प्रकारान्तर से समाविष्ट हो जाता है। उसके अगले दो चरण और हैं, जो उस सीधी राह को भी स्पष्ट करने के लिए कहे गये हैं। 
'सिरातल्जीन अन्अम्त अलैहिम'- अर्थात् हे प्रभु! हमें उन लोगों की राह पर चला, जिस पर चलने वालों पर तू अपने असीम अनुदान बरसाता है। 
'गैरिल- मगज़ूबि अलैहिम तलज्ज्वाल्लीनि'- अर्थात् उन लोगों की राह पर मत चला जो भटक गये हैं और तेरे कोप के भाजन हुए हैं। 
सूरह फ़ातिहा के सूत्रों को समझ लेने पर उसे गायत्री मंत्र का पूरक मान लेने में किसी को कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए। सूरह फ़ातिहा का कलेवर गायत्री मंत्र से कुछ बड़ा इसलिए हो गया है कि देश, काल के अनुसार मूल भावों को थोड़ा अधिक स्पष्ट करने की ज़रूरत समझी गयी। पूरी बात को समझकर जप या लेखन साधना के लिए सीमित सूत्रों (सूत्र ३,४,५ अर्रहमान ... से लेकर मुस्तक्रीम तक) का प्रयोग किया जा सकता है। 
इस्लाम के तमाम विद्वान गायत्री मंत्र के भावों से प्रभावित हुए और उन्होंने उसके भावों को उर्दू कविता के रूप में व्यक्त किया है। 'सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा' गीत के रचनाकार अल्लामा मोहम्मद इक़बाल की ग्रंथावली 'कुल्लियात इक़बाल' के पृष्ठ क्र. २० पर गायत्री मंत्र का  तरजुमा (पद्यानुवाद) 'आफताब' शीर्षक से प्रकाशित किया गया है। उर्दू पत्रिका 'हमारी जुबान' (८ मई १९९४ ई.) के अंक में पृष्ठ क्र. ६ पर 'साबिर अबोहरी' द्वारा किया गया गायत्री मंत्र का उर्दू पद्यानुवाद प्रकाशित हुआ था। उन्होंने भी इसे सूरह फ़ातिहा से मिलता जुलता कहा है। 
निवेदन : उक्त आधार पर मनुष्य मात्र के लिए उज्ज्वल भविष्य की कामना से साधना, प्रार्थना करने के लिए ईसाइयों और मुसलमानों को भी आसानी से सहमत किया जा सकता है। इस प्रकार युग निर्माण अभियान की समर्थ इकाइयाँ इन सम्प्रदायों में भी गठित और सक्रिय की जा सकती हैं। 

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