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सहृदयता-करुणा, एक दिव्य विभूति

महानता की पहचान
सहृदयता मनुष्य का प्रधान लक्षण है और महानता की पहली निशानी। सहृदय व्यक्ति सब में एक ही परमात्मा का निवास होने का सिद्धांत तर्कों और तथ्यों के आधार पर प्रतिपादित करते हों अथवा नहीं, परन्तु अपने आचारण और व्यवहार द्वारा अवश्य सिद्ध करते हैं कि उन्होंने मनुष्य मात्र में बसने वाले परमात्मा को न केवल पहचाना, बल्कि उसे अपनाया और इस सिद्धान्त को अपने जीवन क्रम में उतारा भी था।

उदारता व सहृदयता सम्पन्न व्यक्तियों का प्रसंग आता है तो महाकवि पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला का नाम उसमें चमक कर उभरता है।  वे हिन्दी साहित्य के इतिहास प्रवर्तक कवि थे, किन्तु उन्हें उनकी सहृदयता, उदारता और करुणा के कारण देवता के रूप में उल्लेखित किया जाता है। उन्होंने अपनी सारी सम्पदा और समूचे साधन दीन-दुखियों में बाँट दी थी तथा स्वयं अकिंचन होकर रहते थे। यही नहीं, जब भी कभी उन्हें किसी और से कुछ मिलता तो वे उसे भी अपने पास रखने की अपेक्षा दूसरे जरूरतमन्द व्यक्तियों को बाँट देते थे।

एक बार जेठ की तपती दुपहरी में वे घर में विश्राम कर रहे थे। किसी काम से बाहर निकले तो देखा एक क्षीणकाय वृद्ध, जिसके शरीर में अस्थियाँ मात्र ही थीं, सिर पर लकड़ियों का भारी गठ्ठर उठाये चला जा रहा था। उसका शरीर तो जवाब दे ही रहा था, ऊपर से सूरज की गर्म किरणें और नीचे जलती हुई धरती; वातावरण ही ऐसा था कि उसमें चलना तो क्या, खड़े रह पाना भी कठिन था। तिस पर भी वह फटे, पुराने कपड़े तथा नंगे पैर था।  

निराला की दृष्टि उस वृद्ध पर पड़ी तो वे अपना काम भूल गए और तुरन्त वृद्ध के पास जा पहुँचे। उन्होंने वृद्ध को कुछ कहा तथा उसके सिर पर रखा लकड़ियों का गठ्ठर उतारकर उसे अपने घर के भीतर ले आये। कुछ दिनों पहले ही कुछ मित्रों ने उनके लिए जूते और वस्त्र आदि खरीदे थे। निराला ने सारा सामान लाकर उस वृद्ध व्यक्ति के सामने रख दिया और आग्रहपूर्वक कहा, "इन्हें पहन लो।"
वृद्ध व्यक्ति यह देखकर सकपका गया। कोई जान-पहचान नहीं, अपरिचित हूँ, फिर भी यह सब क्यों किया जा रहा है? बड़ी मुश्किल से साहस जुटाकर बोला, "बिना कुछ जान-पहचान के यह सब ...!"
वह वृद्ध अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाया था कि निराला जी बीच में ही उसकी बात काटते हुए बोले, च्च्अच्छी तरह जानता हूँ बाबा तुम्हें। तुम मेरे करोड़ों भाइयों में से एक हो।ज्ज् इतना कहकर वे स्वयं अपने हाथ से उस वृद्ध को जूते पहनाने लगे।

अहितकारी का भी भला हो
सहृदयता अथवा करुणा अहित चिन्तन करने वालों को भी अपना बना देती है। सौमनस्यता उत्पन्न करने के लिए किए गये हजारों-हजार प्रयास वह परिणाम उत्पन्न नहीं कर पाते जो करुणा उत्पन्न करती है। सब में अपने ही समान आत्मा देखने और प्राणिमात्र का दु:खदर्द समझने वाले व्यक्ति अपने लाभ के लिए भी किसी प्राणी को कष्ट नहीं पहुँचा सकते।

घटना सन् १९४० की है। उन दिनों महात्मा गाँधी के आश्रम सेवाग्राम में परचुरे शास्त्री नामक विद्वान भी रहते थे, जो कुष्ट रोग से पीड़ित थे। बापू स्वयं उनकी मालिश किया करते, घावों को धोते और दवाई लगाते।

एक दिन आश्रम के ही एक कार्यकर्त्ता पं. सुन्दरलाल ने बापू को शास्त्री जी की मालिश करते देखा, कहा, "बापू! कोढ़ की तो एक अचूक औषधि है। कोई जीवित काला नाग पकड़कर मँगवायें और कोरी मिट्टी की हाँड़ी में बन्द कर उसे उपलों की आग पर इतना तपायें कि नाग जलकर भस्म हो जाए। उस भस्म को यदि शहद के साथ रोगी को खिलाया जाय तो कुष्ठ कुछ ही दिनों में दूर हो सकता है।"

महात्मा गाँधी इस उपाय के सम्बन्ध में कुछ कहें, इसके पहले ही शास्त्री जी ने कहा, "बेचारे निर्दोष साँप ने क्या बिगाड़ा है? जो उसको जला कर अपना रोग ठीक किया जाय। इससे तो मेरा स्वयं का मरना ही ठीक है, क्योंकि हो सकता है पूर्व जन्म के किसी पाप के कारण मुझे यह रोग लगा हो।"

सबको मिलता है यह सुयोग
धन, बुद्धि, प्रतिभा, योग्यता से सम्पन्न होते हुए भी जिस व्यक्ति में सहृदयता-करुणा नहीं है, वह पिछड़ा, एकांगी, अपूर्ण ही माना जाएगा। समृद्धि एवं बौद्धिक प्रखरता मनुष्य के लिए साधन मात्र जुटा सकते हैं, किन्तु वे आधार नहीं दे पाते जिनसे परस्पर एक-दूसरे के प्रति, समस्त समाज के प्रति आत्मीयता उमड़ती हो, पीड़ा-पतन को देखकर सेवा-सहयोग के लिए हृदय मचलता हो।

ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने एक भूखे, किन्तु मातृभक्त बालक की एक रुपया देकर सहायता की। इसी एक रुपये के सहारे आगे चलकर वह प्रतिष्ठित दुकानदार बन गया था और ईश्वरचंद्र विद्यासागर जी को अपना भगवान मानने लगा था।
 
ऐसे सुयोग हर मनुष्य के जीवन में कभी न कभी आते हैं, किन्तु लोग संकीर्णता-निष्ठुरतावश उनसे कन्नी काटते नज़र आते हैं। लेकिन हृदय सम्पन्नों की करुणा उन्हें बड़े से बड़ा जोखिम उठाने को भी बाध्य करती है।

निर्धन, किन्तु दिल से अमीर
नई दिल्ली की घटना है जब पंजाबी सूबे को लेकर साम्प्रदायिकता का विष फूट पड़ा था। हिंसा का नंगा नाच चल रहा था, सैकड़ों व्यक्ति मारे गए। उसी समय एक अशिक्षित रिक्शा चालक, एक महिला तथा शिशु को लिए मुख्य सड़क से निकल रहा था। दंगा शुरू होते ही महिला सारा सामान छोड़कर चाँदनी चौक की एक गली में दौड़ गई। सामान तो छोड़, बच्चे पर भी उसका ध्यान नहीं रहा।  

चारों ओर पत्थर फिक रहे थे, गोलियाँ भी चल रही थीं। रिक्शावाला चाहता तो वह भी भाग कर अपनी सुरक्षा करता, किन्तु वह भागा नहीं, एक वर्षीय मासूम बच्चे की सुरक्षा के लिए उसे गोद में लेकर अपने सिर को उसकी ढाल बना ली। पत्थर पड़ते रहे, रिक्शेवाला लहुलुहान हो गया, बेहोश हो गया। जब होश आया तो अपने को पुलिस से घिरा पाया। सामने ही सजल नेत्रों से वह महिला देख रही थी। रुँधे गले से वह बोली, "भैया! तुमने मेरे बच्चे को आज नया जीवन दिया है। मैं जीवनपर्यन्त तुम्हारी ऋणी रहूँगी।" कुछ पैसे निकाल कर महिला ने रिक्शा चालक को देने चाहे, किन्तु रिक्शा चालक ने इन्कार कर दिया, कहा, "मनुष्य होने के नाते यह तो मेरा कर्त्तव्य था।"

आन्तरिक करुणा ही मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी पूँजी है। स्वामी विवेकानन्द ने अपने एक भाषण में इस प्रकार प्रस्तुत किया था, "बुद्धिमान होना अच्छी बात है। बुद्धिमान और भाव सम्पन्न होना और भी अच्छी बात है। किन्तु यदि दोनों में चयन की बात आये जो बुद्धिमान होने की तुलना में भाव सम्पन्न बनना अधिक पसन्द करूँगा। हृदय की संवेदनशीलता के अभाव में बुद्धि निरंकुश और कठोर बन जाती है।

महामानव, महापुरुष अंत:संवेदनाओं को उभारने और उसे सत्प्रयोजनों में, पीड़ा-पतन निवारण में नियोजित करने के लिए ही अधिक लगे रहे हैं। यही वह आधार है, जिसके सम्बल से मानवता गौरवान्वित होती है और समाज में सुख-शांति से भरीपूरी परिस्थितियाँ विनिर्मित होती हैं।

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