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अपने प्रिय शिष्य योत्जी के साथ ऋषि लाओत्जे किसी यात्रा पर जा रहे थे। वे उस नगर के पास से गुजरे जहाँ के राजा को कुछ दिन पूर्व युद्ध में मार दिया गया था। राज-प्रासाद जो कभी हास-विलास का केन्द्र था, आज भूत-प्रेतों का बास बना हुआ था।
खण्डहर देखकर लाओत्जे ने कहा-कितना भयंकर लगता है यह स्थान, आदमी की गति न होने से स्थान कितने नीरव और उदास लगते हैं। पता नहीं उस दिन धरती...
Akhandjyoti Jun(1991)