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आकाश ने अपने विशाल अँचल के एक कोने में बैठी मक्खी जैसी पृथ्वी पर नजर डाली और दोनों के मध्यान्तर को देखते हुए हँस पड़े।
पृथ्वी तात्पर्य समझ गई। उसने विनयनत् होकर कहा “दैव ! आपके विशाल अँचल में बैठकर भी तुच्छता के कारण उपहासास्पद क्यों बनी ? आपसे पृथक कैसे समझी गई।” आकाश ने अपनों को बिराने की तरह देखने में भूल समझी और उसे तुरन्त सुधार लिया।
...Akhandjyoti Nov(1983)