त्याग की व्यापक भावना रखकर श्रम करना, साधना करना ही तप कहलाता है। दूसरों की सेवा के लिए अपने शरीर पर कष्ट सहना, समष्टि के लाभ की चिन्ता रखकर कोई भी दृढ़ प्रयत्न करना तप है, किन्तु शरीर को व्यर्थ कष्ट देकर आत्म- कल्याण और दूसरों का हित चाहने वाले इस अमूल्य साधन को क्षीण करते हैं और वह तप नहीं कहला सकता। केवल शरीर के भरण- पोषण, आराम- सुख के लिए ही सदैव प्रयत्न करना भी तप नहीं। मजदूर, व्यापारी, अन्य पेशेवर लोग क्या कम श्रम करते हैं? किन्तु उन्हें तपस्वी नहीं कहा गया।
त्याग नहीं तो तप नहीं
विश्वकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने लिखा है- ‘‘मानव जीवन का ध्येय आत्मतोष प्राप्त करना है, और आत्मतोष प्राप्ति का उपाय मानवीय सामर्थ्य का विकास करना है। सामर्थ्य का विकास साधना से होता है और साधना तप के बिना पूरी नहीं होती।
जीवन के अपने ध्येय की पूर्ति के लिए तप की, कठिन परिश्रम की आवश्यकता होती है। निरन्तर साधना और परिश्रम ही ‘तप’ के पुण्य- नाम से पुकारे जाते हैं। किन्तु तप के साथ ही ‘त्याग’ का शब्द जुड़ा हुआ है। जो तप त्याग के लिए किया जाता है वही तप है। तप के लिए तप करना, तप नहीं कहा जा सकता। उससे शरीर और मानसिक विकारों का प्रादुर्भाव होता है। उससे आत्मपरितोष का उद्देश्य भी प्राप्त नहीं हो सकता। तप के साथ संग्रह का कोई स्थान नहीं है। दीपक तपता- जलता है, दूसरों को प्रकाश देने के लिए। प्रकृति स्वयं ग्रीष्म से तपती है, धरती पर पावस के आगमन के लिए। सूर्य तपता है लोकों में जीवन फूँकने के लिए। गाय जंगल- जंगल घूमती है लोगों को दूध देने के लिए। प्रकृति ने यह तप उसे सहज ही बता रखा है।
यही नियम मानव जीवन में भी लागू होता है। जीवन की तपस्या ‘सर्वलोकहितार्थ’ हो, ‘सर्वजन सुखाय’ हो, तभी वह तप की श्रेणी में आती है। एक व्यापारी अपनी श्री- वृद्धि के लिए दिन- रात कितनी दौड़ धूप करता है; एक मजदूर सुबह से शाम तक पसीना बहाता है, किन्तु उनकी अपेक्षा निःस्वार्थ भाव से संसार के कल्याण की कामना का चिन्तन करने वाले, सबको सन्मार्ग दिखाने वाले ‘लोकसेवी’ अधिक पूजनीय माने गये हैं। क्योंकि त्याग की व्यापक भावना रखकर श्रम करना, साधना करना ही तप कहलाता है।
दूसरों की सेवा के लिए कष्ट सहना, समष्टि के लाभ की चिन्ता रखकर कोई भी दृढ़ प्रयत्न करना तप है, किन्तु शरीर को व्यर्थ कष्ट देकर आत्म- कल्याण और दूसरों का हित चाहने वाले इस अमूल्य साधन को क्षीण करते हैं और वह तप नहीं कहा जा सकता। केवल शरीर के भरण- पोषण, आराम- सुख के लिए ही सदैव प्रयत्न करना भी तप नहीं। मजदूर, व्यापारी, अन्य पेशेवर लोग क्या कम श्रम करते हैं? किन्तु उन्हें तपस्वी नहीं कहा गया।
न हो तप का अभिमान
स्वार्थ के लिए अथवा तप को ही लक्ष्य बनाकर किया गया तप आत्मतुष्टि नहीं कर सकता, उससे जीवन में सन्तोष नहीं मिलता। इससे तो अभिमान की वृद्धि होकर मनुष्य विकारग्रस्त हो जाता है। उस तपस्वी की कथा प्रसिद्ध है जिसके देखने पर चिड़िया जलकर भस्म हो गई थी, किन्तु गृहस्थ स्त्री, तुलाधार वैश्य और माँस विक्रेता के यहाँ जाकर उसके तप का अभिमान नष्ट हुआ। विश्वामित्र को तप का अभिमान हुआ, जिससे उनका पतन हो गया। रावण के तप से उसकी श्री- समृद्धि बढ़ी, किन्तु स्वार्थ भाव के कारण उसका पतन हुआ।
महात्मा बुद्ध ने अपने राजभवनों के सुखोपभोग छोड़े, जंगल में जाकर तप किया। उन्होंने कई वर्षों तक कठोरता के साथ तप साधना की, सारा शरीर कृश हो गया, किन्तु उन्हें आत्मशक्ति नहीं मिली। किन्तु जब उन्होंने ग्रामीण लड़की से खीर खाई और फिर मध्यम मार्ग का अनुसरण किया, लोक- कल्याण के लिए उन्होंने अपने तपस्वी- एकाकी जीवन का त्याग किया, तब उन्हें आत्मतोष प्राप्त हुआ। जब तक उन्हें अपने तप और त्याग का अभिमान रहा, उन्हें आत्मशक्ति नहीं मिली।
महाराजा शिखिध्वज ने अपना राजपाट छोड़कर तप के लिए जंगल की शरण ली और कष्टों का वरण किया, फिर भी उन्हें शान्ति नहीं मिली। जब उनकी स्त्री चूड़ाला ने ब्रह्मचारी के वेष में उन्हें उपदेश देकर सब प्रकार के अभिमान का त्याग कर लोकहित के लिए तप करने का उपदेश दिया तो उनकी ग्रन्थियाँ सुलझ गईं और वे राजकाज करने लगे। तप का शुद्ध स्वरूप वह है जिसमें वह त्याग के लिए किया गया हो।
ईश्वर का विधान
विश्व विधान की माँग है कि प्रत्येक जीव, पदार्थ, वस्तु, विश्व की विकास- यात्रा में अपना योग दे, विकास के कार्यक्रम में अपने आपको खपा दे। बीज अपने आपको मिटा देता है विशाल वृक्ष के निर्माण के लिए। वृक्ष अपनी जीवनी शक्ति असंख्य बीजों में छोड़कर विकास की मंजिल में खप जाता है।
सृष्टि का सौन्दर्य बढ़ाये रखने तक ही पुण्य का जीवन है। प्रकृति का एक- एक छोटा- बड़ा पुर्जा सृष्टि को विकास, सत्य, सौन्दर्य, उन्नति की राह पर आगे बढ़ाने में अपना पूरा- पूरा योगदान दे रहा है। इसी में उसका महत्त्व और शक्ति निहित है।
जड़ अथवा जीव जगत के सभी पदार्थ विश्व की विकास यात्रा में अपना योगदान दे रहे हैं, उत्सर्ग कर रहे हैं। यह बात मनुष्य पर भी लागू होती है। मनुष्य सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है, इस दृष्टि से विश्व की विकास यात्रा में मनुष्य की अधिक जिम्मेदारी है। जो मनुष्य इसे समझते और समष्टि के लिए अपना उत्सर्ग करते हैं, उनके विकार स्वतः ही धुलने लगते हैं और नवजीवन, शक्ति, स्फूर्ति, सामर्थ्य प्राप्त करते हैं। उन्हें जीवन में अहर्निश सन्तोष, शान्ति, प्रसन्नता का अनुभव होने लगता है।
विवेक जगायें, सेवाधर्म अपनायें
व्यक्तिगत दृष्टिकोण का त्याग कर, सार्वजनिक- समष्टिगत भाव बनाकर श्रम किया जाय। अपने लिए नहीं, वरन् विश्वयज्ञ में जीवन शक्ति की आहुति देकर आत्मतोष के रूप में यज्ञ का महान पुण्य अर्जित किया जा सकता है।
दूसरों की सेवा- सहायता करने, समाज का उत्थान व मातृभूमि की सेवा करने, मानव जाति के कल्याण और विकास के लिए साहित्य- कला की साधना करते हुए धरती पर परम सत्य, सौन्दर्य, शिव का सन्देश सुनाने जैसे कार्यों में लग कर मनुष्य त्याग आत्मोत्सर्ग की भूमिका प्रस्तुत कर सकता है। छोटे से लेकर बड़े से बड़ा कार्य सभी सृष्टि के लिए अपना- अपना महत्त्व रखते हैं। मेहतर की सफाई, किसान- मजदूर का श्रम, पूँजीपति का औद्योगिक कार्य, बुद्धिजीवी की विचार साधना, सरकारी नौकरी में कर्तव्यपालन सभी अपने- अपने स्थान पर महत्त्वपूर्ण हैं यदि इन्हें समष्टिगत हित के अनन्य भाव से पूरे- पूरे प्रयत्न के साथ किया जाय। इन सभी कार्यो से आत्मपरितोष के उद्देश्य की पूर्ति होती है।
लौकिक जीवन को छोड़ना, धन सामग्री को छोड़ना त्याग नहीं है। दरिद्रों की सेवा के लिए स्वयं दरिद्र बनना मूर्खता है, क्योंकि दरिद्रता और मूर्खता जुड़वाँ बहिनें हैं। इसी तरह शरीर को कष्ट देना, सुखाना, क्षीण करना तप नहीं कहलाता। सब प्रकार के अभिमान का त्याग कर अपनी शक्ति, सामर्थ्य, उपलब्धियों को उत्सर्ग करते रहना ही सच्चा त्याग है। दूसरों के हित कल्याण के लिए, स्वयं कष्ट सहना, शरीर और मन का उपयोग करना, दूसरों की सेवा में लगना, अपने सुख, भोग, स्वार्थ आदि में मन न जाने देना ही तप है। महाराजा जनक, अशोक, बुद्ध, और इस युग में महात्मा गाँधी, तिलक, मालवीय जी आदि अनेकों महापुरूष इसी श्रेणी में आते हैं। भगवान राम का जीवन तप और त्याग की सजीव व्याख्या है। जन कल्याण के चिन्तक ऋषियों का आदर्श तप और त्याग के लिए प्रसिद्ध है।
त्याग का रहस्य
नारद जी ज्ञान का प्रचार करते हुए एक घने जंगल में पहुँचे। वहाँ बहुत घनी छाया वाले एक बड़े सेमर के पेड़ के नीचे बैठकर विश्राम किया, बहुत आनन्द हुआ। उन्होंने पेड़ से पूछा, ‘‘वृक्षराज! तुम्हारा वैभव स्थिर कैसे रहता है? पवन तुम्हें गिराती क्यों नहीं?’’
वृक्ष ने कहा, ‘‘बेचारे पवन की कोई सामर्थ्य नहीं कि वह मेरा बाल भी बाँका कर सके।’’
नारद जी को लगा कि वृक्ष अपने वैभव के अभिमान में चूर है। सुरलोक जाकर उन्होंने पवन से यह बात कही। पवन देव भी क्रोध से भर उठे और प्रचण्ड बल प्रवाह के साथ चल दिये पेड़ को नष्ट करने।
पेड़ को आने वाले संकट का अहसास था। उसने पहले ही अपने सारे पत्ते झड़ा लिये और ठूँठ बनकर खड़ा हो गया। पवन उसका बाल भी बाँका न कर सका। कुछ दिन बाद जब नारद जी ने उस पेड़ को फिर उसी तरह हराभरा देखा तो हतप्रभ रह गये।
उन्हें देख पेड़ बोला, ‘‘ऋषिराज! मेरे पास इतना वैभव है, पर मैं उसके मोह से बँधा नहीं हूँ। संसार की सेवा के लिए इतने पत्तों को धारण किये हूँ, पर जरूरत पड़ने पर बिना हिचकिचाहट उन्हें त्याग भी देता हूँ। इसीलिए पवन देव की प्रचण्ड टक्कर सह सका।’’
नारद जी समझ गये कि संसार में वैभव रखना, धनवान होना कोई बुरी बात नहीं है। इससे तो बहुत से शुभ कार्य हो सकते हैं। बुराई तो धन के अभिमान में डूब जाने और उससे मोह करने में है। यदि कोई व्यक्ति धनी होते हुए भी मन से पवित्र रहे तो वह एक प्रकार का साधु ही है। जल में कमल की तरह निर्लिप्त रहने वाले कर्मयोगी साधु के लिए घर ही तपोभूमि है।
त्याग नहीं तो तप नहीं
विश्वकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने लिखा है- ‘‘मानव जीवन का ध्येय आत्मतोष प्राप्त करना है, और आत्मतोष प्राप्ति का उपाय मानवीय सामर्थ्य का विकास करना है। सामर्थ्य का विकास साधना से होता है और साधना तप के बिना पूरी नहीं होती।
जीवन के अपने ध्येय की पूर्ति के लिए तप की, कठिन परिश्रम की आवश्यकता होती है। निरन्तर साधना और परिश्रम ही ‘तप’ के पुण्य- नाम से पुकारे जाते हैं। किन्तु तप के साथ ही ‘त्याग’ का शब्द जुड़ा हुआ है। जो तप त्याग के लिए किया जाता है वही तप है। तप के लिए तप करना, तप नहीं कहा जा सकता। उससे शरीर और मानसिक विकारों का प्रादुर्भाव होता है। उससे आत्मपरितोष का उद्देश्य भी प्राप्त नहीं हो सकता। तप के साथ संग्रह का कोई स्थान नहीं है। दीपक तपता- जलता है, दूसरों को प्रकाश देने के लिए। प्रकृति स्वयं ग्रीष्म से तपती है, धरती पर पावस के आगमन के लिए। सूर्य तपता है लोकों में जीवन फूँकने के लिए। गाय जंगल- जंगल घूमती है लोगों को दूध देने के लिए। प्रकृति ने यह तप उसे सहज ही बता रखा है।
यही नियम मानव जीवन में भी लागू होता है। जीवन की तपस्या ‘सर्वलोकहितार्थ’ हो, ‘सर्वजन सुखाय’ हो, तभी वह तप की श्रेणी में आती है। एक व्यापारी अपनी श्री- वृद्धि के लिए दिन- रात कितनी दौड़ धूप करता है; एक मजदूर सुबह से शाम तक पसीना बहाता है, किन्तु उनकी अपेक्षा निःस्वार्थ भाव से संसार के कल्याण की कामना का चिन्तन करने वाले, सबको सन्मार्ग दिखाने वाले ‘लोकसेवी’ अधिक पूजनीय माने गये हैं। क्योंकि त्याग की व्यापक भावना रखकर श्रम करना, साधना करना ही तप कहलाता है।
दूसरों की सेवा के लिए कष्ट सहना, समष्टि के लाभ की चिन्ता रखकर कोई भी दृढ़ प्रयत्न करना तप है, किन्तु शरीर को व्यर्थ कष्ट देकर आत्म- कल्याण और दूसरों का हित चाहने वाले इस अमूल्य साधन को क्षीण करते हैं और वह तप नहीं कहा जा सकता। केवल शरीर के भरण- पोषण, आराम- सुख के लिए ही सदैव प्रयत्न करना भी तप नहीं। मजदूर, व्यापारी, अन्य पेशेवर लोग क्या कम श्रम करते हैं? किन्तु उन्हें तपस्वी नहीं कहा गया।
न हो तप का अभिमान
स्वार्थ के लिए अथवा तप को ही लक्ष्य बनाकर किया गया तप आत्मतुष्टि नहीं कर सकता, उससे जीवन में सन्तोष नहीं मिलता। इससे तो अभिमान की वृद्धि होकर मनुष्य विकारग्रस्त हो जाता है। उस तपस्वी की कथा प्रसिद्ध है जिसके देखने पर चिड़िया जलकर भस्म हो गई थी, किन्तु गृहस्थ स्त्री, तुलाधार वैश्य और माँस विक्रेता के यहाँ जाकर उसके तप का अभिमान नष्ट हुआ। विश्वामित्र को तप का अभिमान हुआ, जिससे उनका पतन हो गया। रावण के तप से उसकी श्री- समृद्धि बढ़ी, किन्तु स्वार्थ भाव के कारण उसका पतन हुआ।
महात्मा बुद्ध ने अपने राजभवनों के सुखोपभोग छोड़े, जंगल में जाकर तप किया। उन्होंने कई वर्षों तक कठोरता के साथ तप साधना की, सारा शरीर कृश हो गया, किन्तु उन्हें आत्मशक्ति नहीं मिली। किन्तु जब उन्होंने ग्रामीण लड़की से खीर खाई और फिर मध्यम मार्ग का अनुसरण किया, लोक- कल्याण के लिए उन्होंने अपने तपस्वी- एकाकी जीवन का त्याग किया, तब उन्हें आत्मतोष प्राप्त हुआ। जब तक उन्हें अपने तप और त्याग का अभिमान रहा, उन्हें आत्मशक्ति नहीं मिली।
महाराजा शिखिध्वज ने अपना राजपाट छोड़कर तप के लिए जंगल की शरण ली और कष्टों का वरण किया, फिर भी उन्हें शान्ति नहीं मिली। जब उनकी स्त्री चूड़ाला ने ब्रह्मचारी के वेष में उन्हें उपदेश देकर सब प्रकार के अभिमान का त्याग कर लोकहित के लिए तप करने का उपदेश दिया तो उनकी ग्रन्थियाँ सुलझ गईं और वे राजकाज करने लगे। तप का शुद्ध स्वरूप वह है जिसमें वह त्याग के लिए किया गया हो।
ईश्वर का विधान
विश्व विधान की माँग है कि प्रत्येक जीव, पदार्थ, वस्तु, विश्व की विकास- यात्रा में अपना योग दे, विकास के कार्यक्रम में अपने आपको खपा दे। बीज अपने आपको मिटा देता है विशाल वृक्ष के निर्माण के लिए। वृक्ष अपनी जीवनी शक्ति असंख्य बीजों में छोड़कर विकास की मंजिल में खप जाता है।
सृष्टि का सौन्दर्य बढ़ाये रखने तक ही पुण्य का जीवन है। प्रकृति का एक- एक छोटा- बड़ा पुर्जा सृष्टि को विकास, सत्य, सौन्दर्य, उन्नति की राह पर आगे बढ़ाने में अपना पूरा- पूरा योगदान दे रहा है। इसी में उसका महत्त्व और शक्ति निहित है।
जड़ अथवा जीव जगत के सभी पदार्थ विश्व की विकास यात्रा में अपना योगदान दे रहे हैं, उत्सर्ग कर रहे हैं। यह बात मनुष्य पर भी लागू होती है। मनुष्य सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है, इस दृष्टि से विश्व की विकास यात्रा में मनुष्य की अधिक जिम्मेदारी है। जो मनुष्य इसे समझते और समष्टि के लिए अपना उत्सर्ग करते हैं, उनके विकार स्वतः ही धुलने लगते हैं और नवजीवन, शक्ति, स्फूर्ति, सामर्थ्य प्राप्त करते हैं। उन्हें जीवन में अहर्निश सन्तोष, शान्ति, प्रसन्नता का अनुभव होने लगता है।
विवेक जगायें, सेवाधर्म अपनायें
व्यक्तिगत दृष्टिकोण का त्याग कर, सार्वजनिक- समष्टिगत भाव बनाकर श्रम किया जाय। अपने लिए नहीं, वरन् विश्वयज्ञ में जीवन शक्ति की आहुति देकर आत्मतोष के रूप में यज्ञ का महान पुण्य अर्जित किया जा सकता है।
दूसरों की सेवा- सहायता करने, समाज का उत्थान व मातृभूमि की सेवा करने, मानव जाति के कल्याण और विकास के लिए साहित्य- कला की साधना करते हुए धरती पर परम सत्य, सौन्दर्य, शिव का सन्देश सुनाने जैसे कार्यों में लग कर मनुष्य त्याग आत्मोत्सर्ग की भूमिका प्रस्तुत कर सकता है। छोटे से लेकर बड़े से बड़ा कार्य सभी सृष्टि के लिए अपना- अपना महत्त्व रखते हैं। मेहतर की सफाई, किसान- मजदूर का श्रम, पूँजीपति का औद्योगिक कार्य, बुद्धिजीवी की विचार साधना, सरकारी नौकरी में कर्तव्यपालन सभी अपने- अपने स्थान पर महत्त्वपूर्ण हैं यदि इन्हें समष्टिगत हित के अनन्य भाव से पूरे- पूरे प्रयत्न के साथ किया जाय। इन सभी कार्यो से आत्मपरितोष के उद्देश्य की पूर्ति होती है।
लौकिक जीवन को छोड़ना, धन सामग्री को छोड़ना त्याग नहीं है। दरिद्रों की सेवा के लिए स्वयं दरिद्र बनना मूर्खता है, क्योंकि दरिद्रता और मूर्खता जुड़वाँ बहिनें हैं। इसी तरह शरीर को कष्ट देना, सुखाना, क्षीण करना तप नहीं कहलाता। सब प्रकार के अभिमान का त्याग कर अपनी शक्ति, सामर्थ्य, उपलब्धियों को उत्सर्ग करते रहना ही सच्चा त्याग है। दूसरों के हित कल्याण के लिए, स्वयं कष्ट सहना, शरीर और मन का उपयोग करना, दूसरों की सेवा में लगना, अपने सुख, भोग, स्वार्थ आदि में मन न जाने देना ही तप है। महाराजा जनक, अशोक, बुद्ध, और इस युग में महात्मा गाँधी, तिलक, मालवीय जी आदि अनेकों महापुरूष इसी श्रेणी में आते हैं। भगवान राम का जीवन तप और त्याग की सजीव व्याख्या है। जन कल्याण के चिन्तक ऋषियों का आदर्श तप और त्याग के लिए प्रसिद्ध है।
त्याग का रहस्य
नारद जी ज्ञान का प्रचार करते हुए एक घने जंगल में पहुँचे। वहाँ बहुत घनी छाया वाले एक बड़े सेमर के पेड़ के नीचे बैठकर विश्राम किया, बहुत आनन्द हुआ। उन्होंने पेड़ से पूछा, ‘‘वृक्षराज! तुम्हारा वैभव स्थिर कैसे रहता है? पवन तुम्हें गिराती क्यों नहीं?’’
वृक्ष ने कहा, ‘‘बेचारे पवन की कोई सामर्थ्य नहीं कि वह मेरा बाल भी बाँका कर सके।’’
नारद जी को लगा कि वृक्ष अपने वैभव के अभिमान में चूर है। सुरलोक जाकर उन्होंने पवन से यह बात कही। पवन देव भी क्रोध से भर उठे और प्रचण्ड बल प्रवाह के साथ चल दिये पेड़ को नष्ट करने।
पेड़ को आने वाले संकट का अहसास था। उसने पहले ही अपने सारे पत्ते झड़ा लिये और ठूँठ बनकर खड़ा हो गया। पवन उसका बाल भी बाँका न कर सका। कुछ दिन बाद जब नारद जी ने उस पेड़ को फिर उसी तरह हराभरा देखा तो हतप्रभ रह गये।
उन्हें देख पेड़ बोला, ‘‘ऋषिराज! मेरे पास इतना वैभव है, पर मैं उसके मोह से बँधा नहीं हूँ। संसार की सेवा के लिए इतने पत्तों को धारण किये हूँ, पर जरूरत पड़ने पर बिना हिचकिचाहट उन्हें त्याग भी देता हूँ। इसीलिए पवन देव की प्रचण्ड टक्कर सह सका।’’
नारद जी समझ गये कि संसार में वैभव रखना, धनवान होना कोई बुरी बात नहीं है। इससे तो बहुत से शुभ कार्य हो सकते हैं। बुराई तो धन के अभिमान में डूब जाने और उससे मोह करने में है। यदि कोई व्यक्ति धनी होते हुए भी मन से पवित्र रहे तो वह एक प्रकार का साधु ही है। जल में कमल की तरह निर्लिप्त रहने वाले कर्मयोगी साधु के लिए घर ही तपोभूमि है।