Timeline Updates

श्रावणी पर्व पर द्विजत्व को शुद्ध- प्रबुद्ध बनाने हेतु साधना का स्तर बढ़ायें

जीवन में ब्राह्मणत्व को जाग्रत् करने, जीवन्त बनाने के लिए संकल्पित हों

पर्व प्रेरणाश्रावणी पर्व द्विजत्व के वरण और पोषण का पर्व है। द्विजत्व अर्थात् इसी जीवन में नये उद्देश्यपूर्ण नये जन्म को सार्थक बनाने वाली विधा। पिता के सहयोग से माँ के गर्भ से जन्म पाने की प्रक्रिया तो पशु- पक्षियों में भी होती है। यह शरीर को जन्म देने का क्रम है। शरीर के अन्दर जो 'ईश्वर अंश जीव अविनाशी' स्थित रहता है, उसे इतना जाग्रत्, जीवन्त, विकसित किया जाय कि काया के सारे क्रिया- कलापों में उसी की झलक उभरने लगे, पशु प्रवृत्तियों से संचालित काया दिव्य प्रेरणाओं से संचालित होने लगे तो इस परिवर्तन को नये जीवन, नये जन्म की संज्ञा दी जाती है।

नया जन्म :- जैसे माता- पिता के संतुलित सहयोग से काया जनती है, वैसे ही गुरुकृपा और शिष्य के समर्पण के संयोग से साधक द्विज बनता है। बीज प्रकृति के प्रति समर्पण दिखाता है, प्रकृति के प्रवाह में अपना अस्तित्व मिलाने, गलाने के लिए तैयार होता है, तो प्रकृति की कृपा अपना प्रभाव दिखाने लगती है। छोटे से बीज से एक नये वृक्ष का जन्म होता है, जो ढेरों फलों और बीजों को पैदा करने में समर्थ होता है।

इसी प्रकार साधक- शिष्य जब अपनी सीमित क्षमताओं को समर्थ गुरु के निर्देशों- अनुशासन के प्रति समर्पित कर देता है तो एक जीवन्त साधक का जन्म होता है, जिसके पुरुषार्थ के सुफल परिवार एवं समाज को धन्य बनाने लगते हैं। साधक का जीवन सफल हो जाता है। ऐसे समर्पित साधक को द्विज की संज्ञा दी जाती है।
द्विजत्व का वरण करना बहुत कठिन नहीं है, किन्तु उसे नियमित और प्रगतिशील बनाये रखना कठिन होता है। विकृत मन:स्थितियाँ और विपरीत परिस्थितियाँ अपना प्रभाव साधक जीवन पर जाने- अनजाने में डालती रहती हैं। उनसे बचाते हुए नियमितता और प्रगतिशीलता बनाये रखने के कौशल और संसाधन जुटाने पड़ते हैं। बीज के अंकुरण के साथ खर- पतवार भी पनपने लगते हैं, जो अंकुर के विकास में लगने वाली पोषक शक्ति का अपहरण कर लेते हैं, विकास को बाधित कर देते हैं। साधक के मन, विचार और आचरण में अनचाहे प्रवेश करने वाले विकार भी खरपतवार जैसी ही भूमिका निभाते हैं। उनका उन्मूलन करने और द्विजत्व के संकल्प को पोषण- संरक्षण देने वाले सद्भावों, सद्विचारों, सत्पुरुषार्थ को धारदार बनाने की जरूरत पड़ती है। शिखा और यज्ञोपवीत जैसे गरिमामय प्रतीक इसी प्रक्रिया को नियमित, प्रगतिशील बनाये रखने के लिए धारण किए जाते हैं।

श्रावणी पर्व साधक के जीवन में उक्त दोनों अनिवार्य प्रक्रियाओं को प्रखर- जीवन्त बनाने का संदेश और शक्ति प्रवाह लेकर आता है। इस पर्व पर द्विजत्व की दिशा में बढ़ने के लिए किए गये संकल्पों, अपनाये गये अनुशासनों के निर्वाह में जो भूलें हुई हों, उनको चिह्नित करके, तद्नुसार प्रायश्चित्त करके, भविष्य में उच्चतर सोपानों पर कदम बढ़ाने के संकल्प करने चाहिए। प्रकृति द्वारा प्रदत्त ऋषि अनुकम्पा से प्राप्त इस सुअवसर का अच्छे से अच्छा उपयोग करना चाहिए। सुनिश्चित तैयारी करें

इस सुअवसर का लाभ उठाना है तो केवल पर्व के दिन ही कुछ कर लेने से बात नहीं बनती। कोई महत्त्वपूर्ण अवसर आने वाला है तो उसका लाभ उठाने के लिए काफी पहले से तैयारी की जाती है। कोई परीक्षा देनी हो, कोई साक्षात्कार (इण्टरव्यू) देना हो या कोई महत्त्वपूर्ण मैच खेलना हो तो बहुत पहले से अपनी वर्तमान स्थिति की समीक्षा करके, कमियों को दूर करने, कौशल को निखारने के प्रयास पूरी ईमानदारी और मेहनत से किए जाते हैं, तभी वाञ्छित परिणाम प्राप्त हो पाते हैं। श्रावणी पर्व का समुचित लाभ उठाने के लिए इसी प्रकार तैयारी करने की मानसिकता बनानी चाहिए।

क्या करें? श्रावणी पर्व पर मूल रूप में दो प्रक्रियाएँ अपनाई जाती हैं। (१) पूर्व में अपनाये गए गुरु अनुशासनों- संकल्पों के निर्वाह में जो भूलें हुई हों, उनको ठीक करने के लिए प्रायश्चित्त विधान निर्धारित है। उनसे हुई क्षति को पूरा करना। (२) अगले चरण के लिए बेहतर लक्ष्य निर्धारित करना, उन्हें पूरी निष्ठा से निभाने का संकल्प करना और ऋषि, देवताओं से उन्हें पूरा करने के लिए उचित शक्ति अनुदान प्राप्त करना। इसके लिए देवपूजन तथा रक्षाबन्धन, वृक्षारोपण जैसे रचनात्मक कार्यक्रम अपनाये जाते हैं।
(१) प्रायश्चित्त विधान :- इसके तीन चरण होते हैं।
(क) प्रकटीकरण
(ख) तपश्चर्या(ग) इष्टापूर्ति।

(क) प्रकटीकरण :: गहन आत्म समीक्षा करके दोषों को रेखांकित करना तथा उन्हें खुले हृदय से गुरुसत्ता के सामने प्रकट कर देना। उन्हें आगे न दोहराने का वचन देना। इसे ईसाइयों में 'कन्फैशन' तथा इस्लाम में 'तौबा करना' कहते हैं। जब तक हृदय से दोषों को स्वीकार न किया जाय, तब तक उनके शोधन के अपने प्रयास भी सफल नहीं हो पाते तथा गुरुसत्ता- देवशक्तियों के विशेष अनुग्रह भी नहीं मिलते। इसके लिए पूर्व तैयारी में आत्मसमीक्षा द्वारा आत्मशोधन के लक्ष्य निश्चित कर लेने चाहिए।
(ख) तपश्चर्या :- जिन छिपी हुई हीन चित्तवृत्तियों एवं आदतों के कारण वह चूकें हुई हैं, उनको निकाल फेंकने के लिए, उनकी पूरक श्रेष्ठ वृत्तियों को जाग्रत् करने और तद्नुसार नये विवेकपूर्ण अभ्यास करने के कठोर प्रयास ही तपश्चर्या बन जाते हैं। अपनी शक्तिभर उन्हें करने के व्यावहारिक, सुनिश्चत और प्रयासों के अनुरूप ही तपश्चर्या का स्वरूप बनता है। इस हेतु अपने लिए आवश्यक संकल्पों के प्रारूप भी पहले से तैयार रखने चाहिए।
(ग) इष्टापूर्ति :: उन भूलों और दोषों के कारण अपने व्यक्तिगत जीवन को, परिवार और समाज को जो हानियाँ हुई हैं, उनकी आपूर्ति अपने विशेष प्रयासों से करने के संकल्पित प्रयासों को इष्टापूर्ति कहा जाता है।

उक्त तीनों चरण जिस ईमानदारी से उठाये और गिनाये जाते हैं, उसी अनुपात में ऋषि- देवताओं के अनुग्रह भी साधक के साथ जुड़ जाते हैं। श्रावणी पर्व पर हेमाद्रि संकल्प सहित दश स्नान, शिखा वंदन, यज्ञोपवीत परिवर्तन, देव एवं ऋषि पूजन उक्त पूर्व तैयारी से निर्धारित, सुनिश्चित संकल्पों के साथ करने से ही वाञ्छित लाभ मिलते हैं। यंत्रवत् कर्मकाण्ड भर पूरे कर लेने से कोई विशेष लाभ नहीं होता। अस्तु पर्व के उक्त जीवन्त अनुशासनों को पूरा करते हुए श्रावणी पर्व मनाने की अंतरंग एवं बहिरंग व्यवस्था बनाई जानी चाहिए।
द्विजत्व से देवत्व- ब्राह्मणत्व की ओर
द्विजत्व का संस्कार, अपने भावों, विचारों और कर्मों को पाश्विक संकीर्णता से ऊपर उठाकर आत्मा की महत्ता के अनुरूप विकसित करने के संकल्प के साथ कोई भी ले सकता है। देव संस्कृति की मान्यता है कि जन्म से तो सभी शूद्र (केवल श्रम की क्षमता सम्पन्न) होते हैं। संस्कार से वे द्विज बन जाते हैं। जन्म के आधार पर कथित क्षत्रिय यदि संकीर्णता में फँसा रहे तो उनका शौर्य राष्ट्र और दुर्बलों की रक्षा करने की जगह अहंकारपूर्ण उपद्रवों में लग जाता है। कथित वैश्य का कौशल पोषण, उत्पादन और वितरण का संतुलन बनाकर जन- जन को पोषण देने की जगह कुटिलतापूर्वक अपने संकीर्ण स्वार्थों की पूर्ति के लिए जनशोषण का माध्यम बन जाता है। कथित शूद्र की श्रमशीलता समाज को मजबूती देने की जगह चोरी- उपद्रव जैसे क्रमों में लगा सकती है। कथित ब्राह्मण अपने ज्ञान से जन- जन को दिशा देने की जगह निजी स्वार्थ के लिए उन्हें भ्रमित करने, अन्धविश्वास फैलाने में लग सकता है। इसीलिए देव संस्कृति ने सभी को द्विज बनकर पशुत्व से देवत्व की ओर बढ़ने की व्यवस्था बनाई है। युगऋषि ने इसी तथ्य को प्रज्ञा पुराण में इस प्रकार व्यक्त किया है :-

वर्ण चार हैं। क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र समाज में क्रमश: सुरक्षा, समृद्धि और श्रम की महत्त्वपूर्ण भौतिक आवश्यकताएँ पूरी करते हैं। ब्राह्मण का उत्तरदायित्व अध्यात्मप्रधान होता है। वस्तुत: समाजोत्कर्ष में चारों का योगदान महत्त्वपूर्ण होता है। किसी को छोटा- बड़ा या ऊँच- नीच नहीं कहा जा सकता। समाज रूपी शरीर के सभी अंग- सभी वर्ण स्वस्थ होने चाहिए। देव संस्कृति में मान्यता है कि जन्म से सभी शूद्र होते हैं, संस्कारों के द्वारा द्विज बनते हैं। सामान्य रूप से सभी वर्ण अपने निर्धारित कर्त्तव्य सँभालते हैं। किन्तु समाज और परिस्थितियों के विवेकपूर्ण संतुलन के लिए कोई भी व्यक्ति किसी वर्ण विशेष की क्षमताएँ अपने अन्दर विकसित करके उन दायित्वों को सँभाल सकता है। चारों में से किसी एक वर्ग का पतन होने से समाज का संतुलन बिगड़ने लगता है। ब्राह्मण वर्ग को इस दिशा में सबसे अधिक सतर्क रहना होता है। उसका पतन होने से अन्य वर्गों का पतन भी होने लगता है। (प्रज्ञो. ४, ५६- ६४)

सभी वर्गों के व्यक्तियों को अपने अंदर बीज रूप में विद्यमान देवत्व को जाग्रत्- विकसित करना चाहिए। सच्चे ब्राह्मण का मुख्य कर्त्तव्य यही रहा है कि वह सभी वर्णों- वर्गों के व्यक्तियों को मनुष्य में देवत्व के विकास का क्रम अपनाने के लिए प्रेरित- प्रशिक्षित करने का तंत्र बनाये रखे। यदि वह अपने कर्त्तव्य से गिर जाता है तो उपयुक्त प्रेरणा, प्रशिक्षण, सहयोग के अभाव में अन्य वर्ण भी पतनोन्मुख होने लगते हैं। समाज का संतुलन लड़खड़ाने लगता है। इसलिए ब्राह्मण कहलाने के लिए उसके आचरण भी ब्राह्मणत्वयुक्त होने चाहिए। प्रज्ञा पुराण में लिखा है :-

मनुष्य किसी कुल विशेष में जन्म लेने मात्र से ही ब्राह्मण नहीं बनता, उसके लिए उसे आचारणनिष्ठ भी होना पड़ता है। ब्रह्मकर्मरत वानप्रस्थ एवं सन्यासी भी ब्राह्मण संज्ञा में आते हैं। (प्रज्ञो. ४, ६८- ६९)

स्पष्ट है कि यदि कोई व्यक्ति खिलाड़ी की पोशाक पहन ले, खेल के नियम याद कर ले तो इतने मात्र से वह खिलाड़ी नहीं बन सकता। उसे अपने स्वास्थ्य और कौशल को खेल के नियमों के अनुसार गढ़ना होता है। इसी प्रकार कोई व्यक्ति सरगम और रागों को रट ले, उन्हें ठीक से गा न सके तो वह संगीतज्ञ की भूमिका पूरी नहीं कर सकता। इसी प्रकार ब्राह्मण, वानप्रस्थ या सन्यासी का वेश बना लेने, उसके नियमों को याद कर लेने से कोई सच्चे ब्राह्मण की भूमिका नहीं निभा सकता। इस संदर्भ में प्रज्ञा पुराण में निर्देश हैं कि :-

ब्राह्मण की तुलना मस्तिष्क और मुख से की गई है। वह उदार हृदय चिंतन प्रदान करता है और उद्घोष- प्रवचन का उत्तरदायित्व भी स्वयं अनुशासित बनकर सँभालता है। ब्राह्मण का निज जीवन अपरिग्रही, एषणाओं से रहित, सौम्य, सात्विक, सद्गुणी, सेवा परायण और सदाचार युक्त होना चाहिए। (प्रज्ञोपनिषद् ४, ६५- ६७)
मस्तिष्क शरीर के एक छोटे- से हिस्से- सिर में स्थित होता है। किन्तु शरीर की तमाम क्रियाओं- प्रतिक्रियाओं को वही संचालित करता है। मस्तिष्क गड़बड़ा जाने पर व्यक्ति की काया ठीक होते हुए भी निष्क्रिय (लकवाग्रस्त) हो जाती है, शरीर की हरकतें पागलों जैसी हो जाती हैं। भोजन मुख में ही प्रवेश करता दिखता है, लेकिन उससे सारे शरीर को पोषण तथा क्रियात्मक ऊर्जा मिलती है। कोई व्यक्ति समाज में मस्तिष्क एवं मुख जैसी भूमिका तभी निभा सकता है जब उसमें उक्त गुण प्रचुर मात्रा में हों।

धन्य बनें- धन्य बनायें
द्विजत्व के साधक को अपने अन्दर ब्राह्मणोचित गुणों- प्रवृत्तियों के विकास के लिए संकल्पित प्रयास करने चाहिए। आजकल ऐसे सच्चे ब्राह्मणों की बहुत आवश्यकता है। प्रज्ञा पुराण ने इसे स्पष्ट करते हुए लिखा है :-
उदरपूर्ति के लिए आवश्यक शिक्षा प्राप्त करने हेतु विद्यार्थी और अभिभावक स्वयं ही दौड़- धूप करते रहते हैं। उसके लिए जानकारी भर बढ़ाने वाले वेतनभोगी अध्यापक भी अन्यान्य श्रमिकों की तरह हर जगह मिल जाते हैं। अभाव उनका रहता है, जो अपने गुण- कर्म, स्वभाव का आदर्श प्रस्तुत करके जनसाधारण का विवेक जगा सकें, उदात्त आचरण एवं परमार्थ परायणता सिखा सकें। यह काम कर सकना हर किसी के वश का नहीं है। यह कार्य प्राय: ब्राह्मण ही कर पाते हैं। उन्हीं को पुरोहित के रूप में जनसाधारण का नेतृत्व करना पड़ता है। इस धर्म- धारणा के लिए मात्र शिक्षण- उद्बोधन ही पर्याप्त नहीं होता, वरन अभ्यास के लिए अनेकों रचनात्मक एवं सुधारात्मक आन्दोलन भी खड़े करने पड़ते हैं। उनमें अनेकों को जुटाकर ज्ञान को कर्म में परिणत करते हुए उन्हें मनुष्यों के स्वभाव- संस्कार के स्तर तक पहुँचाना पड़ता है। (प्रज्ञोपनिषद् ४, ७०- ७७)

युगऋषि ने हर भावनाशील- प्रतिभाशाली को संस्कार से ब्राह्मण बनने के रास्ते खोल दिए हैं। जन- जन के बीच दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन, सत्प्रवृत्ति संवर्धन के समर्थ सूत्र भी समझाये हैं तथा उसके लिए सेवा- आराधना के रूप में रचनात्मक कार्यक्रमों के ताने- बाने भी बुन दिए हैं। प्राणवान साधक उसके लिए प्रखर साधना करें, युगधर्म निभायें, स्वयं भी धन्य बनें तथा अन्यों को भी धन्य बनायें।

Releted Articles

Loading...

Categores