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वृक्षों में प्रतिस्पर्धा होने लगी कि कौन बड़ा होकर आसमान छू लेता है? सब ने अपना-अपना पुरुषार्थ प्रयत्न किया और ऊँचाई छू लेने की प्रतिस्पर्धा में ध्यान नहीं रहा कि विस्तार और फैलाव भी रुक सकता है और वही हुआ। बाजी ताड़ ने मार ली। ताड़ वृक्ष ऊँचा तो हो गया और अहंकार में गर्दन उठाये खड़ा भी हो गया। किंतु विस्तार न होने से वह किसी के उपयोग का रहा नहीं। ‘पक्षी को छाया नहीं फल लागे...
Akhandjyoti Dec(1994)