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मन के हारे हार है मन के जीते जीत

मन मान जाता है, मनाइये तो सही

मन अधोगामी नहीं है
प्राय: लोगों की यह शिकायत होती है कि हमारा मन बुराई से हटता नहीं। इच्छा तो बहुत करते हैं, धर्मानुष्ठान भी चलाते हैं, जप और उपासना भी करते हैं, किन्तु मन विषयों से हटता नहीं। बुराइयाँ हर क्षण मस्तिष्क में आती रहती हैं।

जब ऐसी बातें सुनने को मिलती हैं तो लगता है मन ही सब कुछ है, वही जीवन की सम्पूर्ण गतिविधियों का संचालन करता है। यह बात अगर मान भी लें तो यह नहीं कह सकते कि मन स्वभावत: अधोमुखी है, क्योंकि सन्त- हृदय पुुरुषों के मन की भी गति होती है। उनकी प्रवृत्तियाँ, रुचि और क्रिया- व्यापार जब सदाचारमूलक होते हैं तो यह कैसे कह सकते हैं कि मन स्वत: बुराइयों की ओर चला जाता है। वस्तुत: हमारी रुचि जिन विषयों में होती है, हम उन्हीं का चिन्तन करते हैं और उन्हीं में तृप्ति अनुभव करते हैं। मन को जब किसी विषय में रुचि नहीं होती, तभी वह अन्यत्र भागता है।

विषयों की ओर भटकता हुआ मन ही दु:ख का कारण होता है। इस अवस्था से हम तब तक छुटकारा नहीं पा सकते, जब तक मन की लगाम नहीं खींचते और उसे कल्याणकारी विषयों में नहीं लगाते।

मन मित्र है, शत्रु नहीं
मन तो आपकी इच्छानुसार रुचि लेता है। जिन व्यक्तियों की तरह- तरह की स्वादिष्ट वस्तुएँ खाते रहने में रुचि होती रहती है, वे इसी में भटकते रहते हैं। स्वादिष्ट चीजें बार- बार खाते रहते हैं पर किसी से तृप्ति ही नहीं होती। एक के बाद दूसरे पदार्थ में अधिक स्वाद प्रतीत होता है। इस स्वाद में उन्हें न तो अपने स्वास्थ्य का ध्यान रहता है, न भविष्य का। उनकी पाचन- प्रणाली बिगड़ जाती है, स्वास्थ्य खराब हो जाता है तो कहते हैं हम क्या करें, हमारा तो मन नहीं मानता।

दूसरे व्यक्ति को स्वस्थ रहना अधिक पसन्द होता है। उसे शौर्य प्रदर्शन की इच्छा होती है तो वह कसरत करता है, कुश्ती लड़ता है; मालिश और पौष्टिक पदार्थों के लिए समय, श्रम और धन जुटाता है। अनेकों क्रियाएँ केवल इसीलिए करता है कि उसे स्वास्थ्य अधिक प्रिय है।

मनुष्य की जैसी रुचि, मन वैसा ही करता है। अत: इसे शत्रु नहीं, मित्र समझना चाहिए। उसे किसी उत्तम और उपयोगी विषय पर टिकाए रहना सुगम है। जिस विषय में आप अपनी उन्नति या श्रेय समझते हैं, उसमें अपने मन को प्रवृत्त कीजिए। मन आपको बताएगा कि आप उसकी सफलता के लिए क्या करें?

अपनी सोच बदलिए
आपका मन कल्याणकारी विषयों में लगा रहता है इसका ध्यान रखिए। 'हमारे किए कुछ न होगा।' ऐसा निराशापूर्ण दृष्टिकोण ही मनुष्य की असफलता का कारण है। जब हम यह मान लेते हैं कि इस कार्य को हम करके ही छोड़ेंगे तो वह कार्य जरूर सफल होता है। आशा और आत्म- विश्वास में बड़ी उत्पादक शक्ति है। आप उन्हें जीवन में धारण कीजिए, आपका मानसिक निरोध किसी प्रकार कामयाब नहीं होगा।

जिस विषय में ध्यान दीजिए, उसके अच्छे- बुरे पहलुओं का एक सर्वांगपूर्ण रेखाचित्र अपने मस्तिष्क में बनाते रहिए। जिधर कमी या अनुपयुक्तता दिखाई दे, उधर मन की दीवार खड़ी कर दीजिए और अपनी रुचि की दिशा को सन्मार्ग की ओर मोड़े रहिए। निरन्तर अभ्यास से जब वह स्थिति बन जाती है तब मन स्वयं कोई विकल्प उत्पन्न नहीं करता। सत्संकल्पों में ही अवस्थित बनने के लिए गीताकार ने भी यही प्रयोग बताया है। लिखा है :-

असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेनतुकौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।

'हे अर्जुन! निश्चय ही यह मन चंचल और अस्थिर है। इसका वश में करना निश्चय ही कठिन है, किन्तु अभ्यास और वैराग्य भावना से वह भी वशवर्ती हो जाता है।'

अभ्यास का अर्थ आप जिस विषय में रुचि रखते हैं, बार- बार अपने मन को उसी में लगाइए। मान लीजिए कि आपको विद्याध्ययन करना है तो आपका ध्यान इस प्रकार रहे कि कहाँ से पुस्तकें प्राप्त करें? कौन सी पुस्तक अधिक उपयुक्त है? अच्छे नम्बर प्राप्त करने के लिए परिश्रम भी वैसा ही करना है। इससे आपके विचारों की आत्मनिर्भरता, सूझ और अनुभव बढ़ेंगे और उसी में लगे रहने से आपको सफलता भी मिलेगी।

अपनी हीन प्रवृत्ति के कारण ही मनुष्य प्राय: अशुभ विचारों और अप्रिय अवस्थाओं का चिन्तन करते रहते हैं। इसी कारण उनके मस्तिष्क में निरन्तर द्वन्द्व छिड़ा रहता है। कामुकतापूर्ण विचारों वाला व्यक्ति सदैव वैसे ही विचारों से घिरा रहता है। थोड़े से विचार आत्म- कल्याण के बनाता भी है तो अनिश्चयात्मक बुद्धि के कारण तरह- तरह के संशय उठते रहते हैं। जब तक एक तरह के विचार परिपक्व नहीं होते, तब तक उस दिशा में अपेक्षित प्रयास भी नहीं बन पाते। यही कारण है कि किसी क्षेत्र में प्रगति नहीं कर पाता।

सद्विचार जब जाग्रत होते हैं तो मनुष्य का जीवन स्वस्थ, सुन्दर और सन्तोषयुक्त बनता है। अपना संकल्प जितना बलवान बनेगा, उतना ही मन की चंचलता दूर रहेगी। इससे वह शक्ति जो मनुष्य को उत्कृष्ट बनाती है, विशृंखलित न होगी और मनुष्य दृढ़तापूर्वक अपने निश्चय पथ पर बढ़ता चलेगा।

संयमित मन, सुखी जीवन
आप सदैव ऐसे ही काम करें जिससे आपकी आत्मा की अभिव्यक्ति हो। जिन कार्यों में आपको सन्तोष न होता हो, उन्हें अपने जीवन का अंग न बनाइए। अपने कार्यों में मानवोचित स्वतंत्रता की भावना का समावेश हो, तभी उनमें अपनी आत्मा व्यक्त होती है। दूसरों के लिए सही मार्गदर्शन वही दे सकता है जिसमें स्वतंत्र रूप से विचार करने की शक्ति हो। इस शक्ति का उद्रेक मनुष्य के नैतिक साहस और उसके प्रबुद्ध मनोबल से ही होता है।

बलवान मन जब किसी शुभ कर्म में संलग्न होता है तब वह मनुष्य के जीवन को सुख- संपदाओं से ओत- प्रोत कर देता है। उसकी भावनाएँ संकीर्णताओं के बंधन तोड़कर अनन्त तक अपने सम्बन्धों का विस्तार करती है। वह लघु न रहकर महान बन जाता है। अपनी इस महानता का लाभ दूसरे अनेकों को दे पाने का यश- लाभ प्राप्त करता है।

इसलिए जीवन साधन का प्रमुख कर्त्तव्य यही होना चाहिए कि हमारी मानसिक चेष्टाएँ पतनोन्मुख न हों। मन जितना उदात्त बनेगा, जीवन उतना ही विशाल बनेगा। सुख और शान्ति मनुष्य जीवन की इस विशालता में ही सन्निहित है। दु:ख तो मनुष्य स्वार्थपूर्ण प्रवृत्तियों के कारण पाता है।

अत: अपने आप को सुधारने का प्रयत्न कीजिए। वश में किया हुआ मन ही मनुष्य का सहायक है और उससे बढ़कर अपना उद्धारकर्ता संसार में शायद ही कोई हो। इस परम हितैषी मन पर अनुकूल न होने का दोषारोपण लगाना उचित नहीं लगता। जिस मन पर ही मनुष्य की उन्नति या अवनति आधारित है, उसे सुसंस्कारित बनाने का प्रयत्न सावधानी से करते रहना चाहिए। मन को विवेकपूर्वक समझाएँ तो वह मान जाता है।

अपने आप को सुधारने का प्रयत्न कीजिए। वश में किया हुआ मन ही मनुष्य का सहायक है और उससे बढ़कर अपना उद्धारकर्ता संसार में शायद ही कोई हो।

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